भूमिका
परम पावन 14वें दलाई लामा की उम्र 89 साल है। वो 1959 से निर्वासन में रह रहे हैं। वो अपने अनुयायियों को भरोसा दिलाते हैं कि वो कई और साल तक जीवित रहेंगे, संभवतः 113 साल की उम्र तक।1 1980 के दशक की शुरुआत से ही दलाई लामा ने पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (PRC) के साथ मेल-मिलाप करने की कोशिशें की हैं। अब तक, ये कोशिशें कामयाब नहीं हुई हैं। हालांकि भविष्य में किसी मेल-मिलाप की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है जो उन्हें तिब्बत लौटने दे सकता है, लेकिन ऐसा होने की उम्मीद बहुत कम लगती है। शायद उनका निधन निर्वासन में ही हो। 2022 में, उन्होंने कहा कि वो अपनी मौत के वक्त चीन के अफसरों से घिरे रहने के बजाय भारत जैसे स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में मरना पसंद करेंगे।2
माना जाता है कि, जीवित बुद्ध के रूप में उनका पुनर्जन्म होगा, लेकिन उनके उत्तराधिकार का सवाल अनिश्चितता में डूबा हुआ है क्योंकि वर्तमान दलाई लामा ने इस संभावना के बारे में पहले ही चेतावनी दे दी है कि दलाई लामा वंश उनके साथ ही खत्म हो सकता है। उन्होंने कई बार यह भी संकेत दिया है कि वो तिब्बत के बाहर पुनर्जन्म ले सकते हैं। 1950 से तिब्बत पर शासन करने वाले PRC का कहना है कि 14वें दलाई लामा का उत्तराधिकारी होगा और अगला अवतार चीन में पैदा होगा और उसे चीनी सरकार की मंजूरी होगी।
दलाई लामा के अवतार को कौन चुनता है, यह सवाल बहस का विषय है। तिब्बती इस बात को नहीं मानते हैं कि चीन के पास दलाई लामा (और तिब्बत के बाकी जीवित बुद्धों) के चुनाव की प्रक्रिया पर किसी तरह का कानूनी हक है। PRC का दावा है कि 1793 के राजसी अध्यादेश (जिसे तिब्बत के बेहतर शासन के लिए राजसी रूप से स्वीकृत अध्यादेश या 29-लेख अध्यादेश के रूप में जाना जाता है) में जीवित बुद्धों (दलाई लामा समेत) के अवतार की प्रक्रिया तय की गई है और चुना गए उम्मीदवार बीजिंग की मंजूरी के अधीन है।3 हालांकि, यह एक तथ्य है कि 1793 के राजसी अध्यादेश में निर्धारित दलाई लामाओं के चुनाव की स्वर्ण कलश पद्धति को केवल 11वें और 12वें दलाई लामाओं के मामलों में चुनिंदा रूप से लागू किया गया था, लेकिन 9वें, 13वें और 14वें दलाई लामाओं के लिए इस पर विचार नहीं किया गया था।4
अगर वर्तमान दलाई लामा, PRC के इलाके के बाहर पुनर्जन्म लेने का फ़ैसला करते हैं, और PRC किसी और व्यक्ति को अवतार के रूप में चुनता है, तो हो सकता है कि 15वें दलाई लामा के एक से अधिक अवतारों का अस्तित्व साथ-साथ हो।5
भारत में इस परिस्थिति पर बहुत ध्यान से नज़र रखी जाएगी, जहां दलाई लामा 1959 से रह रहे हैं। उनकी मौजूदगी भारत और चीन के संबंधों में लगातार तकलीफ देने वाला एक पहलू रही है। उनके निधन के बाद, निर्वासित तिब्बती समुदाय का एक बड़ा हिस्सा भारत की ज़मीन पर बना रहेगा। अगर पुनर्जन्म या तो भारत में होता है या पुनर्जन्म लेने वाले को भारत भेजा जाता है, तो इससे भारत-चीन संबंध और जटिल हो सकते हैं क्योंकि चीन ने एलान कर रखा है कि पुनर्जन्म लेने वाले को चीन के संप्रभुता वाले इलाके में पहले से सरकार की मंजूरी के साथ पाया जाना चाहिए। एक स्टडी में अंदाज़ लगाया गया है कि PRC केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (CTA) के साथ-साथ भारत में स्थित तिब्बती शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थानों को बंद करने की मांग कर सकता है। इस बात की संभावना है कि PRC भारत के हिमालयी इलाके में बौद्ध मठों और समुदायों में घुसपैठ करके और उन्हें प्रभावित करके निर्वासित तिब्बती समुदाय को बांटने की कोशिश करेगा, और इसका असर भारत की सुरक्षा पर पड़ेगा।6
पुनर्जन्म का सवाल भारत के लिए महत्वपूर्ण है। हिमालयी राज्यों में तिब्बती बौद्ध धर्म के भारतीय अनुयायी बड़ी तादाद में हैं, और अगले दलाई लामा के चुनाव पर विवाद की गूंज घरेलू स्तर पर सुनाई दे सकती है। साथ ही, भारत में एक बड़ी तिब्बती आबादी रहती है - जो तिब्बती मुद्दों को PRC के ठीक से न संभाले जाने का नतीजा है - और तिब्बत के सर्वोच्च आध्यात्मिक नेता के पद पर बदलाव व्यवस्थित ढंग से हो, इसमें भारत का हित है। इसलिए, अगर ऐसे हालात पैदा होते हैं तो भारत इससे कैसे निपटेगा, यह नीतिगत सवाल घरेलू स्तर पर और साथ ही भारत और चीन के भावी संबंधों के लिए भी बेहद अहम है।
भारत में, दलाई लामा के पुनर्जन्म के मुद्दे को आमतौर पर द्विपक्षीय दृष्टिकोण से देखा जाता है - या तो चीन के मुकाबले भारत को फायदा पहुंचाने के लिए या भारत-चीन संबंधों के संदर्भ में उस पर बोझ डालने के लिए। ये माना जाता है कि पुनर्जन्म के संवेदनशील मामले पर भारत का रुख 14वें दलाई लामा के बाद के परिदृश्य में PRC की नीति तय करने में केंद्रीय भूमिका निभा सकता है। इस नज़रिए में PRC को एक उदासीन या प्रतिक्रियात्मक भूमिका दी गई है। इस पेपर का मकसद दलाई लामा और तिब्बत पर भारत-चीन डायनेमिक्स से आगे देखना है और यह पता लगाना है कि PRC अपनी व्यापक घरेलू और विदेश नीति की ज़रूरतों के मुताबिक पुनर्जन्म के सवाल पर अपने नज़रिए को कैसे आकार देता है ताकि भारत इससे निपटने के लिए उचित नीति बना सके।
पेपर को चार सेक्शन में बांटा गया है। पहला भाग इस बात की जांच करता है कि 1949 के बाद से आम तौर पर धर्म, और खास तौर पर तिब्बती बौद्ध धर्म को लेकर चीन की बदलती नीतियां अगले दलाई लामा के सवाल पर चीन की सोच को किस तरह आकार दे रही हैं। दूसरा भाग इस बात पर गौर करता है कि बाहरी वजहों, खास तौर पर तिब्बती बौद्ध धर्म और दलाई लामा को लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका के नज़रिए ने तिब्बत पर चीनी नीति पर कैसे असर डाला है, और कैसे यूएस-चीन रिश्तों की मौजूदा हालत पुनर्जन्म के मुद्दे पर PRC के नज़रिए को आकार दे सकती है। दोनों भाग इस मुद्दे पर चीनी नीति पर असर डालने वाले घरेलू और बाहरी वजहों की पहचान करते हैं। तीसरा भाग बताता है कि दलाई लामा को लेकर भारत-चीन संबंधों का इतिहास क्या है और दोनों देशों ने इस मामले को कैसे संभाला है। इसमें दलाई लामा के भारत आने के बाद से दोनों देशों के बीच पिछले पैंसठ वर्षों के आपसी बातचीत से मोटे तौर पर कुछ सबक निकालने की कोशिश की गई है। पेपर का आखिरी भाग कुछ नीतिगत सवालों की पहचान करता है जिन्हें संभालने की ज़रूरत भारत को 14वें दलाई लामा के बाद के परिदृश्य में एक स्पष्ट और स्थिर नीति को आकार देने के लिए हो सकती है।
पेपर का निष्कर्ष है कि दलाई लामा और पुनर्जन्म के सवाल पर PRC की नीति मुख्य रूप से भारत के कदमों या नीति से प्रेरित नहीं है। चीन की नीति पर असर डालने वाली सबसे बड़ी वजह हैं जातीय तौर पर अलग सरहदी इलाके में राजनीतिक-सामाजिक स्थिरता की घरेलू ज़रूरत और यूएस-चीन प्रतिस्पर्धा के बाहरी समीकरण। PRC ने भारत में दलाई लामा की मौजूदगी को तब तक बर्दाश्त किया है जब तक कि इसने दो महत्वपूर्ण मुद्दों- सामाजिक स्थिरता और चीन-यूएस प्रतिस्पर्धा पर असर नहीं डालता। 14वें दलाई लामा के निधन के बाद अगर भारत सद्भावना का एकतरफा कदम भी उठाता है (जैसे, दलाई लामा के चुने हुए उत्तराधिकारी को भारत में रहने से रोकना या आधिकारिक तौर पर PRC के उम्मीदवार को 14वें दलाई लामा का उत्तराधिकारी मान लेना) तो भी भारत को लेकर PRC की नीति में बदलाव की संभावना नहीं है। 14वें दलाई लामा के निधन से भारत-चीन-तिब्बत समीकरण में भी बड़ा बदलाव आएगा क्योंकि हो सकता है कि वे अगले अवतार पर सहमत न हों। इससे महत्वपूर्ण सवाल उठ सकते हैं जिसके लिए भारत को एडवांस पॉलिसी रेस्पॉन्स तैयार करने की ज़रूरत है। दलाई लामा की उम्र और सेहत को देखते हुए, इन सवालों पर गंभीरता से सोचने की प्रक्रिया को बिलकुल नहीं टाला जाना चाहिए।
भाग 1: चीन में धर्म और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी
1949 से पहले, माओत्से तुंग की बातचीत और भाषणों में धर्म को खास जगह नहीं मिलती थी। उनकी प्राथमिकता चीन में कम्युनिस्ट राज लाना था, जिसमें तिब्बत जैसे अल्पसंख्यक इलाके भी शामिल थे।7 जैसा कि माओ ने कहा था, चीन के आधे से ज़्यादा भूभाग अल्पसंख्यक इलाके थे; उनमें संसाधन भरपूर थे, और वे सरहद पर बसे थे।8 इसलिए, तिब्बत पर चीनी नियंत्रण स्थापित करना प्राथमिकता थी, न कि धार्मिक सवाल।
जहां तक आम धार्मिक नीति का सवाल था, भले ही धर्म और साम्यवाद एक-दूसरे के उलट थे, नए बने PRC ने धर्म को लेकर तुलनात्मक रूप से नरम नज़रिया अपनाया। उन्हें आबादी के सभी वर्गों से समर्थन की ज़रूरत थी और उन्होंने मान लिया कि चीनी समाज में धर्म का असर एक सच्चाई है। अप्रैल 1945 में, माओत्से तुंग ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) की 7वीं राष्ट्रीय कांग्रेस को बताया कि, "धार्मिक विश्वास की स्वतंत्रता के सिद्धांत के अनुसार चीन के आज़ाद इलाकों में सभी धर्मों को मानने की अनुमति है। प्रोटेस्टेंट, कैथोलिक, मुस्लिम, बौद्ध और दूसरे धर्मों में यकीन करने वाले सभी लोगों को तब तक चीन की सरकार का संरक्षण मिलेगा जब तक वे इसके कानूनों को मानते हैं।"9 चीन में धार्मिक समूहों के प्रति CCP की नीति दो प्राथमिकताओं से तय हुई थी- सामाजिक स्थिरता और राष्ट्रीय सुरक्षा। सामाजिक स्थिरता के मामले में, पार्टी को लगा कि समाज पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करने के CCP की कोशिशों में सामंती हितों और धार्मिक समूहों के बीच गठजोड़ एक रुकावट बन सकता है। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामले में, उनकी फिक्र यह थी कि चीन के अंदर धार्मिक संगठनों पर विदेशी दबदबा विरोध का ज़रिया बन सकता है। ऐसे मामलों में, पार्टी ने धार्मिक समूहों के खिलाफ प्रतिबंध लगाए और कार्रवाई की।
चूंकि तिब्बत में CCP की प्राथमिकता राजनीतिक नियंत्रण हासिल करना था, इसलिए 1949 में PRC की स्थापना के तुरंत बाद तिब्बत पर हमला करने की योजना बनाई गई।10 माओ ने निजी तौर पर इन योजनाओं को मंजूरी दी। 11 अक्टूबर 1950 में पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के हमले के बाद, तिब्बती सरकार को मजबूर होकर तिब्बत की शांतिपूर्ण मुक्ति के उपायों पर एग्रीमेंट ऑफ द सेंट्रल पीपुल्स गवर्नमेंट एंड द लोकल गवर्नमेंट ऑफ टिबट (जिसे सत्रह सूत्री समझौते के रूप में जाना जाता है) नामक समझौता करना पड़ा। इसने तिब्बती लोगों को "मातृभूमि के बड़े परिवार- चीनी जनवादी गणराज्य" में शामिल कर लिया और तिब्बत को स्वायत्त दर्जा दिया, लेकिन बीजिंग में केंद्रीय प्राधिकरण के नेतृत्व में केवल "स्थानीय सरकार" के रूप में।12
दलाई लामा और तिब्बती बौद्ध महंतों पर CCP का भरोसा नहीं था, लेकिन उसे पता था कि तिब्बत पर उनकी पकड़ कमजोर है और उनके पास तिब्बत पर पूरा कब्जा करने के लिए भौतिक साधनों की कमी है। दलाई लामा से निपटने से पहले उन्हें मज़बूत होने की ज़रूरत थी। अप्रैल 1952 में, पार्टी की सेंट्रल कमिटी ने दक्षिण-पश्चिम ब्यूरो (तिब्बत के प्रभारी) को एक इंटर-पार्टी हिदायत भेजी गई थी, जिसमें स्वीकार किया गया था कि, "भले ही वे [दलाई लामा की सरकार] फ़ौजी ताक़त में हमसे कमतर हैं, सामाजिक असर डालने में वे हमसे आगे हैं। हमें समझौते को पूरी तरह लागू को टाल देना चाहिए।" प्राथमिकता थी "दलाई और उनके शीर्ष स्तर के बहुमत को जीतने के लिए उचित कदम उठाना ... ताकि आने वाले सालों में तिब्बती आर्थिक और राजनीतिक प्रणाली में धीरे-धीरे, बिना किसी खून-खराबे के, बदलाव लाया जा सके।"13 तिब्बती बौद्ध धर्म में दखल देने का कोई सीधा कदम नहीं उठाया गया, हालांकि उन्होंने दूसरे तरीकों से दलाई लामा के प्रभाव को कम करना शुरू कर दिया।14 1950 के दशक की शुरुआत में PRC का अपनाया गया नरम रुख दलाई लामा के इस बयान में दिखता है कि माओ एक पिता समान व्यक्ति थे जिनके साथ उनके अच्छे संबंध थे।15 1950 के दशक के अंत तक, PRC को तिब्बत में अपनी पोज़िशन को लेकर ज़्यादा आत्मविश्वास आ गया था और उसने तिब्बती समाज पर अपना कब्जा मज़बूत करना शुरू कर दिया था। 1959 में दलाई लामा के तिब्बत छोड़ने के बाद, PRC ने दमनकारी नीतियां लागू कीं। दलाई लामा के पलायन के बाद, माओ की सरकार ने धार्मिक रूप से ताक़तवर लोगों की जायदाद जब्त कर ली और कई मठों को बंद कर दिया। सांस्कृतिक क्रांति (1966-76) के दौरान मठों के विनाश, भिक्षुओं को कैद करने और पूजा पर प्रतिबंध लगाने के प्रमाण मौजूद हैं। यह चीन के अंदर बाकी धर्मों (कैथोलिक, प्रोटेस्टेंट, इस्लाम और ताओ के अनुयायियों) को लेकर उनके नज़रिए जैसा ही था। इस तरह, माओत्से तुंग के समय धार्मिक नीति का आधार आम तौर पर, और तिब्बत में खास तौर पर, मार्क्सवादी विचारों के बजाय घरेलू राजनीतिक स्थिरता और राष्ट्रीय सुरक्षा की प्राथमिकताएं थीं। यही PRC के लिए आगे जाकर धर्म से जुड़ी नीति की बुनियाद बनी हुई हैं।
माओ के निधन के बाद, PRC की धार्मिक नीति अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर गई। मार्च 1982 में, पार्टी की सेंट्रल कमिटी ने औपचारिक रूप से सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन में कठोर धार्मिक दमन और पूजा स्थलों के बड़े पैमाने पर विनाश को स्वीकार किया। इसने एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित किया जिसका शीर्षक था "हमारे देश के समाजवादी काल के दौरान धार्मिक प्रश्न पर मूल दृष्टिकोण और नीति"।16 दस्तावेज़ 19 कहलाने वाला ये प्रस्ताव डेंग जियाओपिंग के शासनकाल में तिब्बती बौद्ध धर्म समेत हर तरह की धार्मिक नीति के लिए नई गाइडलाइन बन गया। दस्तावेज़ 19 ने PRC में धर्म के अस्तित्व, इसकी सामूहिक प्रकृति और सरहदी इलाकों में जातीय सवाल के साथ इसके उलझाव को स्वीकार किया।17
इसने एक बुनियादी सवाल उठाया जिसने PRC की संशोधित धार्मिक नीति तय की, “क्या हम इस धार्मिक सवाल को ठीक से संभाल सकते हैं जब हम राष्ट्रीय स्थिरता और जातीय एकता की दिशा में काम कर रहे हैं, जब हम विदेशों से दुश्मन ताक़तों की घुसपैठ का विरोध करते हुए अपने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को विकसित कर रहे हैं?”18 माओ की ही तरह घरेलू (सामाजिक स्थिरता) और अंतर्राष्ट्रीय (राष्ट्रीय सुरक्षा), दोनों पहलुओं को स्वीकार करते हुए, देंग ने सुधार की नई नीति और बाहरी दुनिया के लिए खुलेपन की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए धार्मिक नीति को नए सिरे से गढ़ा।
PRC ने मान्यता प्राप्त धार्मिक समूहों को धार्मिक गतिविधियां फिर से शुरू करने की मंजूरी दी, लेकिन इन गतिविधियों के लिए साफ़ सीमाएं तय की गई थीं। धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता को 1982 में संवैधानिक संरक्षण दिया गया (PRC संविधान का आर्टिकल 36, चैप्टर II)।19 लेकिन धार्मिक संस्थानों को अपने सामंती विशेषाधिकारों को वापस लेने और कम्युनिस्ट पार्टी की लीडरशिप का विरोध करने के लिए धर्म का इस्तेमाल करने या राष्ट्रीय या जातीय एकता को नुकसान पहुंचाने की छूट नहीं थी। इसी धार्मिक नीति के तहत, PRC ने दलाई लामा के साथ फिर से बातचीत शुरू की। 1979 में, देंग की मंजूरी के साथ, PRC ने उनके भाई ग्यालो थोंडुप के ज़रिए दलाई लामा के साथ संपर्क फिर से स्थापित किया।20 बीजिंग का मानना था कि दलाई लामा की तिब्बत वापसी से इस इलाके पर चीन की संप्रभुता के दावे की पुष्टि होगी। थोंडुप ने दो बार बातचीत (1982 और 1984 में) के लिए दलाई लामा के प्रतिनिधियों की टीम की अगुवाई की। लेकिन इससे PRC और दलाई लामा के बीच कोई व्यापक बातचीत नहीं हुई। इसके बाद दलाई लामा ने जून 1988 में स्ट्रासबर्ग में यूरोपीय संसद में अपने भाषण में तिब्बत का सवाल उठाकर इसका अंतर्राष्ट्रीयकरण करने का दबाव बनाया और बदले में, PRC ने दलाई लामा को "विभाजनकारी" करार दिया। लेकिन तिब्बती बौद्ध धर्म को लेकर PRC की नीति मोटे तौर पर समग्र धार्मिक नीति के मुताबिक ही रही।21 दरअसल, 1980 के दशक के बाद से, चीनी रणनीति ने तिब्बत को बाकी चीन के साथ आर्थिक रूप से एकजुट करने को प्राथमिकता दी ताकि वक्त के साथ तिब्बती लोगों के मन में धर्म और दलाई लामा की भूमिका घट सके।
1990 के दशक में, जब चीन में बड़े पैमाने पर धार्मिक पुनरुत्थान की शुरुआत हुई, धार्मिक मामलों को मैनेज करने के लिए नियम लाए गए, जिसकी शुरुआत 1991 में पार्टी की सेंट्रल कमिटी के डॉक्यूमेंट नंबर 6 से हुई, जिसने धार्मिक गतिविधियों पर रेगुलेटरी कंट्रोल बढ़ा दिया। 1994 में, स्टेट काउंसिल के रेगुलेशंस ऑन मैनेजिंग रिलिजियस एक्टिविटीज़ (जिसे डॉक्यूमेंट नंबर 144 के तौर पर जाना जाता है) के तहत, धार्मिक संगठनों के लिए स्थानीय सरकारों के साथ रजिस्ट्रेशन कराना और यह साबित करना ज़रूरी कर दिया गया कि उन पर कोई विदेशी नियंत्रण नहीं है। 1995 में, पंद्रह धार्मिक समूहों (फ़ा लुन गोंग समेत) पर "बुरे संप्रदाय" का ठप्पा लगाकर उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया।22 1997 में, स्टेट काउंसिल ने चीन में धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता पर एक व्हाइट पेपर जारी किया, जिसमें कहा गया था कि सभी धर्मों को कानून के दायरे में ही गतिविधियां करनी होंगी। कड़े नियमों के बावजूद, संगठित धर्मों को लेकर नज़रिया तब तक सहनशील रखा गया जब तक वे स्टेट रिलिजियस अफेयर्स ब्यूरो और बीजिंग से मंजूर देशभक्त धार्मिक संगठनों की अगुवाई में काम करते रहें। दिसंबर 2001 में, नेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन रिलिजियस अफेयर्स में, जनरल सेक्रेट्री जियांग ज़ेमिन ने धर्म के लिए और ज़्यादा "गाइडेंस" की बात कही, लेकिन अफसरों को यह भी याद दिलाया कि वे धार्मिक नीति पर पार्टी के बुनियादी उसूलों का पालन करें और चीन में धर्म को खत्म करने के लिए प्रशासनिक कदमों का इस्तेमाल न करें।23 धर्म को लेकर तुलनात्मक रूप से नरम यह नज़रिया तिब्बती बौद्ध धर्म के प्रति पार्टी के बर्ताव में दिखा था। राष्ट्रपति के रूप में जियांग ज़ेमिन के कार्यकाल के दौरान, दलाई लामा के प्रतिनिधि के साथ अनौपचारिक संपर्क फिर से शुरू हुआ, जिसके नतीजे में सितंबर 2002 से पार्टी के युनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट (UFWD) और दलाई लामा के मुख्य प्रतिनिधि, लोदी ग्यारी के बीच औपचारिक बातचीत हुई।24
जियांग के उत्तराधिकारी हू जिंताओ के नेतृत्व में चीन की पूरी धार्मिक नीति बदलाव के दौर में चली गई। धार्मिक स्वतंत्रता पर लगाम कसने के पहले संकेत 2004 में दिखाई दिए, जब स्टेट काउंसिल ने डिक्री नंबर 426 (जिसे डॉक्यूमेंट नंबर 6 के तौर पर जाना जाता है) पास किया, जिसका टाइटल था "द रेगुलेशंस ऑन रिलिजियस अफेयर्स।25" इनमें कहा गया कि चीन में धर्म का इस्तेमाल देश की सामाजिक व्यवस्था को कमज़ोर करने के लिए नहीं किया जाएगा (आर्टिकल 3), नए धार्मिक संस्थान बनाने के लिए नियम ज़्यादा बना दिए गए, धार्मिक गतिविधियों पर और ज़्यादा सख्त नियम लगाए गए (आर्टिकल 8 और 12), और धर्म गुरुओं के लिए राज्य सरकारों से पहले मान्यता लेना ज़रूरी कर दिया गया (आर्टिकल 29)। नए नियमों में बाहरी संपर्क पर रोक नहीं लगाई गई, लेकिन कहा गया कि इनमें कोई शर्त नहीं होनी चाहिए।26 तिब्बती बौद्ध धर्म के लिए, 2004 के नियम इसलिए भी महत्वपूर्ण थे क्योंकि पहली बार इसमें ऊंचे ओहदे वाले तिब्बती लामाओं के चुनाव की शर्तें लाई गईं। डॉक्यूमेंट नंबर 6 के आर्टिकल 27 में कहा गया है: "तिब्बती बौद्ध धर्म के जीवित बुद्धों की विरासत और उत्तराधिकार को बौद्ध समूहों के मार्गदर्शन में धार्मिक अनुष्ठानों और ऐतिहासिक रीति-रिवाज़ों के मुताबिक संभाला जाएगा और जनवादी सरकार के धार्मिक मामलों के विभाग को इसकी जानकारी दी जाएगी।27 " यह पहला संकेत था कि केंद्रीय नेतृत्व तिब्बती बौद्ध धर्म के ऊंचे ओहदे वाले लामाओं के पुनर्जन्म पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। 2004 के नियमों में सरकार के लिए जीवित बुद्धों की चुनाव प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए कोई विशिष्ट प्रक्रिया तय नहीं की गई थी, लेकिन आर्टिकल 27 ने उनके चुनाव पर विशिष्ट नियम तय करने की बुनियाद तैयार कर दी।
2007 में, स्टेट रिलिजियस अफेयर्स ब्यूरो ने “तिब्बती बौद्ध धर्म के जीवित बुद्धों के पुनर्जन्म के प्रबंधन पर उपाय” शीर्षक से ऑर्डर नंबर 5 जारी किया, जिससे यह साफ़ हो गया कि केंद्र सरकार जीवित बुद्धों के चुनाव और नियुक्ति की पूरी प्रक्रिया को नियंत्रित करने का इरादा रखती है।28 नियमों में कहा गया कि केवल तिब्बत में रजिस्टर्ड मठ ही जीवित बुद्ध के पुनर्जन्म के लिए आवेदन कर सकते हैं (आर्टिकल 3)। राज्य के अफसरों की मंजूरी के बिना कोई भी समूह या व्यक्ति पुनर्जन्म की खोज या मान्यता से संबंधित कोई भी कदम नहीं उठा सकता है (आर्टिकल 7)। कोई भी व्यक्ति या समूह जो बिना पूर्व अनुमति के जीवित बुद्ध उम्मीदवारों की खोज शुरू करता है, उसे अपराध करने वाला माना जाएगा जिसके लिए कड़ी सज़ा मिल सकती है (आर्टिकल 11)। इसके अलावा, यह साफ़ तौर पर कहा गया था कि “विशेष रूप से बड़े प्रभाव” वाले जीवित बुद्ध - जैसे कि दलाई लामा - को सिर्फ PRC के सबसे ऊंचे सरकार अंग से मंजूरी मिल सकती है। (आर्टिकल 5 और 9)29 1 सितंबर 2007 से सभी जीवित बुद्धों के पुनर्जन्म की प्रक्रिया चीन की सेंट्रल गवर्नमेंट के पूरे कंट्रोल में है।
दलाई लामा और PRC के बीच सुलह की प्रक्रिया का आगे ना बढ़ना एक ऐसी वजह है जो जीवित बुद्ध के पुनर्जन्म पर विशिष्ट नियम बनाने के पार्टी के फैसले को साफ़ करता है। 2002 से 2010 तक नौ दौर की बातचीत के लिए दलाई लामा के मुख्य वार्ताकार लोदी ग्यारी के मुताबिक, जुलाई 2005 में चौथे दौर की बातचीत तक दोनों पक्ष संतुष्ट थे, जिसके बाद दलाई लामा के प्रतिनिधियों ने देखा कि दलाई लामा के खिलाफ लगातार प्रोपेगंडा अभियान के साथ-साथ चीन के रुख में सख्ती आ गई। ये सख्ती 2008 में तिब्बत में भड़के तनावपूर्ण दंगों के दौर के साथ आई।30 इन सबने इस बात की संभावना घटा दी कि दलाई लामा चीनी शर्तों पर राज़ी होंगे। बातचीत के ज़रिए तिब्बत का मुद्दा सुलझने की चीनी उम्मीदों के कम होने और दलाई लामा की बढ़ती उम्र ने चीन की नीति में बदलाव को रफ्तार दी है। शायद चीनी नेताओं ने 1990 के दशक के आरंभ में 11वें पंचेन लामा के चुनाव को लेकर उठे विवाद को ध्यान में रखा होगा, और जब दलाई लामा के अवतार की खोज का वक्त आया, तो वे उस तरह के विवाद को रोकना चाहते थे।31
2013 से, चीन के मौजूदा नेता, राष्ट्रपति शी जिनपिंग, चीन में सभी धार्मिक गतिविधियों पर नियंत्रण को और कड़ा करने में लगे हैं। यह उनकी बड़ी योजना का हिस्सा है ताकि पार्टी की अथॉरिटी दोबारा बहाल हो और पार्टी के दबदबे के लिए नुकसानदेह विचारों को पनपने देने से विरोधी ताक़तों को रोका जा सके। 2013 की शुरुआत में, वैचारिक क्षेत्र की वर्तमान स्थिति पर सरकारी जानकारी (जिसे डॉक्यूमेंट नंबर 9 के नाम से भी जाना जाता है) जारी की गई। इसमें विशेष रूप से “चीन को बांटने और तोड़ने के लिए जातीय और धार्मिक मुद्दों के इस्तेमाल” को पार्टी के दीर्घकालिक प्रभुत्व के लिए एक चुनौती बताया गया है।32 शी ने इससे निपटने के लिए कदम उठाए हैं। मई 2015 में, उन्होंने युनाइटेड फ्रंट वर्क कॉन्फ्रेंस बुलाई जहां उन्होंने सार्वजनिक तौर पर चीन में धर्मों के “चीनीकरण” की बात कही, और यही बात अप्रैल 2016 में नेशनल रिलिजियस वर्क कॉन्फ्रेंस में दोहराई गई।33 शी ने ऐलान किया कि इस प्रक्रिया को कानूनों के ज़रिए मैनेज किया जाएगा।34 धार्मिक मामलों के लिए राज्य प्रशासन के निदेशक, वांग ज़ुओआन ने कहा कि चीन में धर्मों को “स्थानीयकरण” की इस प्रक्रिया की ओर ले जाने की ज़रूरत है।35 इसके बाद कई कानून और नियम लाए गए।
फरवरी 2018 में, स्टेट काउंसिल ने सभी धार्मिक संगठनों, शिक्षकों, और कॉलेजों को स्टेट अथॉरिटी के साथ रजिस्टर करना अनिवार्य कर दिया। साथ ही उन्हें कहा गया कि धार्मिक कॉलेज बनाने और सार्वजनिक जगहों पर पढ़ाने और दूसरी धार्मिक गतिविधियां चलाने के पहले मंजूरी लें।36 फरवरी 2020 में, धार्मिक समूहों के प्रशासन के लिए उपाय नाम से और नियम बनाए गए, जिसमें कहा गया कि सभी धार्मिक संगठनों को "CCP की लीडरशिप को मानना चाहिए" (आर्टिकल 5) न कि केवल CCP लीडरशिप का सपोर्ट करना चाहिए जैसा कि 2018 के रेगुलेशन में कहा गया है। सभी धार्मिक समूहों के लिए स्थानीय और केंद्र सरकार की देखरेख, निगरानी, और प्रशासन को स्वीकार करना (आर्टिकल 6); पार्टी के निर्देशों और नीतियों का प्रचार करना और पार्टी की लीडरशिप का समर्थन करने के लिए आस्तिक लोगों को शिक्षित और गाइड करना (आर्टिकल 17); और इस मकसद के लिए स्टडी सिस्टम बनाना (आर्टिकल 25) ज़रूरी हो गया
2020 के बाद से हर अगले रेगुलेशन ने चीन के भीतर धार्मिक गतिविधि के दायरे पर लगातार सख्ती बढ़ाई है और धर्मों के चीनीकरण का दबाव बढ़ाया है। इन नियमों में शामिल है राज्य की मंजूरी के बिना देश के भीतर बने ऑनलाइन धार्मिक सामग्री बांटने पर प्रतिबंध (इंटरनेट धार्मिक सूचना सेवाओं के प्रशासन के लिए उपाय, मार्च 2021), धार्मिक संस्थानों पर ज़्यादा बारीकी से वित्तीय निगरानी के लिए राज्य को ताक़तवर बनाना (धार्मिक गतिविधियों के स्थलों के वित्तीय प्रबंधन पर उपाय, जून 2021), और सभी धार्मिक स्थलों के लिए शी जिनपिंग के विचारों का अध्ययन करना अनिवार्य बनाना (धार्मिक गतिविधि स्थलों के प्रबंधन के लिए उपाय, सितंबर 2023)।37 चीन के भीतर सभी धार्मिक गतिविधियों पर राज्य और पार्टी के नियंत्रण में लगातार बढ़ोतरी कानून की भाषा में भी साफ़ दिखती है। 2018 के रेगुलेशंस में जहां CCP लीडरशिप का सपोर्ट करने के लिए धार्मिक समूहों को "गाइडेंस" की बात कही जाती थी, वो 2020 के रेगुलेशंस में सख्ती के साथ CCP लीडरशिप की “बात माननी चाहिए” तक पहुंची और सबसे ताज़ा (2023) रेगुलेशंस में CCP लीडरशिप को "बनाए रखना चाहिए" (सिर्फ बात मानने तक सीमित नहीं) और धर्म का चीनीकरण करने तक पहुंच चुकी है। ये बातें पार्टी लीडरशिप के भीतर बढ़ती फिक्र को दर्शाती हैं कि चीन के अंदर धार्मिक गतिविधि राजनीतिक रूप से अस्थिरता लाने वाली ताक़त साबित हो सकती है जिस पर लगाम लगाने की ज़रूरत है क्योंकि हर कीमत पर राजनीतिक और सामाजिक स्थिरता बनाए रखना चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए सबसे बड़ी सोच है।
जहां तक तिब्बत का मामला है, तिब्बती बौद्ध धर्म की संभावित रूप से अस्थिर करने वाली भूमिका पर चिंता तिब्बतियों की अलग जातीय पहचान और सरहदी इलाके में उनकी भौगोलिक स्थिति से बढ़ जाती है। 2020 में सातवें तिब्बत कार्य मंच पर, शी ने यह साफ़ कर दिया कि तिब्बत में चीनी नीति का मुख्य आधार सुरक्षा और राजनीतिक स्थिरता बनाए रखना होगा।38 इसका मतलब है तिब्बती बौद्ध धर्म पर कड़ी निगरानी।39 2011 से, सभी तिब्बती मठों को पार्टी कैडर की स्थायी टीमें दी गई हैं। 2018 के बाद, सभी बौद्ध भिक्षुओं को "राजनीतिक रूप से विश्वसनीय" बनाने के लिए एक व्यवस्थित कार्यक्रम चल रहा है।40 इस तरह, घरेलू स्थिरता सुनिश्चित करने की सबसे बड़ी फिक्र, जो PRC की पूरी धार्मिक नीति को निर्देशित करती है, वही तिब्बती बौद्ध धर्म को लेकर उसके बर्ताव में दिखती है। तिब्बत में, जातीय और भौगोलिक वजहों ने चीनी चिंताओं को बढ़ाया है। यह डर कि तिब्बती अलगाववाद का इस्तेमाल बाहरी दुश्मन कर सकते हैं, शुरू से ही चीनी नीति पर हावी रहा है और, जैसा कि हम अगले भाग में देखेंगे, काफ़ी पहले से ही, PRC ने ऐसी आशंका को खत्म करने के लिए अपनी नीति बनाई है।
घरेलू स्थिरता की चिंताओं के चश्मे से तिब्बती बौद्ध धर्म के बारे में PRC का अपनी सोच बनाना अगले दलाई लामा के चुनाव पर नीति को आकार देने में एक अहम (लेकिन इकलौता नहीं) आधार है।
भाग II: अमेरिका, चीन और तिब्बती बौद्ध धर्म
चीन में स्थापित धर्मों से सामाजिक स्थिरता कमज़ोर होने की घरेलू चिंताओं के अलावा, देश के अंदर धर्मों पर बाहरी ताक़तों का असर भी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए एक आम चिंता रही है। पार्टी मानती है कि खास तौर पर कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट जैसे पश्चिमी धर्मों को "उपनिवेशवादियों और साम्राज्यवादियों ने लंबे समय से अपने नियंत्रण और इस्तेमाल में रखा है।"41 1949 में, PRC ने पश्चिमी मिशनरियों को देश से निकाल दिया और धार्मिक मुद्दे को संभालने के लिए सरकार की सीधी निगरानी में "देशभक्त" धार्मिक संघ बनाए।42
जहां तक तिब्बत का सवाल है, जातीय पहचान ने तिब्बत को चीन से अलग करने के लिए बाहरी ताक़तों के तिब्बती बौद्ध धर्म के साथ छेड़छाड़ के बारे में PRC की चिंताओं को और बल दिया। CCP की राय में, अंग्रेज़ों ने 1911 के बाद तिब्बत पर चीनी “संप्रभुता” के बजाय “आधिपत्य” को स्वीकार करके और दलाई लामा की सरकार के साथ सीधा संबंध रखकर विशेष और अलग तिब्बती पहचान को बढ़ावा दिया था।43 PRC को लगा कि ब्रिटेन के भारत छोड़ने के बाद भी, संयुक्त राज्य अमेरिका “तिब्बत की आज़ादी” का मुद्दा उठाकर तिब्बत को चीन से अलग करने की कोशिशों को जारी रख रहा है।44 इसलिए, दलाई लामा के प्रति PRC के रवैये को आकार देने में अमेरिकी नीति और इसके असर की जांच अहम हो जाती है।
तिब्बत को लेकर संयुक्त राज्य अमेरिका की नीति में उतार-चढ़ाव रहा है। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान, अमेरिकी सरकार तिब्बत की स्थिति पर ब्रिटिश सरकार से असहमत थी। जुलाई 1942 में ब्रिटिश सरकार को दिए अपने मेमोरेंडम में, अमेरिका ने कहा कि "आम तौर पर संयुक्त राज्य अमेरिका की सरकार ने इस तथ्य को ध्यान में रखा है कि चीनी सरकार ने लंबे समय से तिब्बत पर आधिपत्य का दावा किया है और चीनी संविधान में तिब्बत को चीन गणराज्य के क्षेत्र में शामिल किया गया है। इस सरकार ने कभी भी इन दावों के बारे में कोई सवाल नहीं उठाया है।"45 अमेरिका 1949 में आज़ाद तिब्बत के आइडिया को समर्थन देने के लिए दलाई लामा की गुज़ारिश से सहमत भी नहीं हुआ था।46 1950 के दशक की शुरुआत में कोरियाई युद्ध की वजह से अमेरिकी नीति बदल गई थी। अमेरिका चाहता था कि दलाई लामा सत्रह सूत्री समझौते (1951) को अस्वीकार कर दें और देश छोड़कर चले जाएं, और कहा कि वो उन्हें "स्वायत्त तिब्बत के प्रमुख" के रूप में मान्यता देगा।47 अमेरिकी केंद्रीय खुफिया एजेंसी ने पचास के दशक के मध्य में पूर्वी तिब्बत में खाम्पा विद्रोह को आर्थिक मदद दी। विद्रोह नाकाम हो गया, लेकिन अमेरिका ने तिब्बत की विशेष स्थिति को मान्यता देने की दिशा में एक अहम कदम उठाया, जब 1959 के बाद, दलाई लामा को भेजी गई चिट्ठियों में साफ़ तौर पर अमेरिकी सरकार की इच्छा जताई गई कि वो "तिब्बती लोगों के लिए आत्मनिर्णय के सिद्धांत के लिए अपने समर्थन की सार्वजनिक घोषणा करेगी।"48
अमेरिका-चीन के बीच संबंधों में सुधार के बाद तिब्बत अमेरिकी हितों के लिए हाशिए पर चला गया। जब दलाई लामा ने 1970 में अमेरिका यात्रा करने की इच्छा जताई, तो राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर ने कहा कि "तिब्बती अलगाववादी आकांक्षाओं के साथ ज़्यादा करीबी और हमारी ताइवान नीति का मेल कम्युनिस्ट चीन के साथ रिश्तों में किसी भी सुधार के लिए बड़ी रुकावटों के रूप में होगा।"49 निक्सन प्रशासन ने दखल ना देने वाला नज़रिया अपनाया जो 1990 के दशक की शुरुआत तक बाद की सरकारों ने भी जारी रखा।
1980 के दशक के अंत से अमेरिका की कांग्रेस तिब्बती बौद्ध धर्म के मुद्दे में शामिल हो गई। शीत युद्ध खत्म होने के बाद, बिल क्लिंटन व्हाइट हाउस में दलाई लामा का आधिकारिक रूप से स्वागत करने वाले पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बने।50 क्लिंटन ने चीन के राष्ट्रपति जियांग ज़ेमिन के सामने तिब्बती बौद्ध धर्म समेत चीन में धार्मिक आज़ादी का मुद्दा उठाया। अक्टूबर 1997 में, राष्ट्रपति जियांग ज़ेमिन ने वॉशिंगटन में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि सभी चीनी नागरिकों को धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता है।51 जून 1998 में, बीजिंग में क्लिंटन के साथ अपनी दूसरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में, जियांग ने साफ़ तौर पर कहा कि धार्मिक आस्था की स्वतंत्रता पर चीन के संवैधानिक प्रावधान तिब्बत पर भी लागू होते हैं। जियांग ने कहा, "जब तक दलाई लामा सार्वजनिक रूप से ये बयान और प्रतिबद्धता दे सकते हैं कि तिब्बत चीन का अविभाज्य अंग है, तब तक बातचीत और समझौते का दरवाज़ा खुला है। दरअसल, हमारे पास दलाई लामा के साथ बातचीत के कई चैनल हैं।"52 उन्होंने सार्वजनिक रूप से इस बात की भी पुष्टि की कि दलाई लामा के प्रतिनिधियों और पार्टी के युनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट (UFWD) के बीच गोपनीय संपर्क फिर से शुरू हो गए हैं।53 क्लिंटन के दूसरे कार्यकाल के दौरान, विदेश विभाग के भीतर तिब्बती मामलों के लिए स्पेशल कोऑर्डिनेटर का एक नया पद बनाया गया था। 2000 में, नए बनाए गए कॉन्ग्रेसनल-एग्ज़िक्यूटिव कमीशन ऑन चाइना (CECC) को चीन के मानवाधिकार रिकॉर्ड पर नियमित निगरानी रखने और इन मामलों में तिब्बत के लिए स्पेशल कोऑर्डिनेटर के साथ सहयोग करने का अधिकार दिया गया था।54 इससे संकेत मिला कि तिब्बत के सवाल पर प्रोएक्टिव अमेरिकी दौर की वापसी हो गई है।
2002 में, अमेरिकी कांग्रेस ने टेबटन पॉलिसी एक्ट (TPA) को मंजूरी दी। जैसा कि लोदी ग्यारी ने कहा, यह "केवल कांग्रेस की भावना जताने वाला प्रस्ताव नहीं था, बल्कि अमेरिकी सरकार की ओर से कार्रवाई की ज़रूरत वाला एक अनिवार्य कानून था।"55 यह तिब्बत पर अमेरिकी नीति को रास्ता दिखाने वाला प्रमुख कानूनी कदम था। इसने तिब्बती मामलों के लिए स्पेशल कोऑर्डिनेटर के ऑफ़िस को संस्थागत रूप दिया, आधिकारिक तौर पर चीनी सरकार को दलाई लामा के साथ बातचीत करने के लिए प्रोत्साहित किया, और तिब्बती पहचान के संरक्षण के लिए आर्थिक मदद दी।
2002 में TPA को मंजूरी मिलने के बाद से, तिब्बत राजनीतिक एजेंडे में रहा है। कांग्रेस ने तिब्बत कानून का दूसरा भाग लागू किया, जिसे टेबटन पॉलिसी एंड सपोर्ट एक्ट (TPSA) के तौर पर जाना जाता है। इस पर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दिसंबर 2020 में दस्तखत कर कानून की शक्ल दी। TPSA ने खास तौर पर तिब्बतियों को अपनी स्थापित धार्मिक रीति-रिवाज़ों के मुताबिक अपने धार्मिक नेताओं को चुनने, शिक्षित करने और उनकी पूजा करने के अधिकार का समर्थन किया। इसने PRC से तिब्बती बौद्ध धर्म की पुनर्जन्म प्रणाली का सम्मान करने को कहा। कानून में यह भी कहा गया है कि पुनर्जन्म की प्रक्रिया में PRC का दखल "तिब्बती बौद्धों और तिब्बती लोगों की मौलिक धार्मिक आज़ादी का साफ़ उल्लंघन" है। इसमें अमेरिकी सरकार को कहा गया है कि वो "PRC सरकार या चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ अधिकारियों को जवाबदेह ठहराने के लिए सभी उचित कदम उठाएं, जो 15वें दलाई लामा की पहचान और स्थापना में सीधा दखल देते हैं।"56 स्पेशल कोऑर्डिनेटर को तिब्बती जीवित बुद्धों को चुनने की PRC की कोशिशों का विरोध करने और यह सुनिश्चित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय गठबंधन बनाने का काम सौंपा गया था कि भविष्य के दलाई लामा का फ़ैसला पूरी तरह से तिब्बती बौद्ध समुदाय के भीतर हो। कुल मिलाकर, TPSA 2020 ने दलाई लामा के पुनर्जन्म के सवाल पर सीधे तौर पर PRC का उल्टा रुख अपनाया।
जुलाई 2024 में, राष्ट्रपति जो बाइडन ने कानून के तीसरे और सबसे हालिया मसौदे पर दस्तखत किए। तिब्बत-चीन विवाद के समाधान को बढ़ावा देने वाला कानून (जिसे रिज़ॉल्व टिबट एक्ट के तौर पर जाना जाता है) दलाई लामा के बारे में चीनी गलत सूचनाओं का मुकाबला करने के लिए उन्हें आर्थिक मदद की अनुमति देता है और PRC से बिना किसी पूर्व शर्त के दलाई लामा के साथ सार्थक और सीधी बातचीत करने की अपील करता है। यह TPSA 2020 में स्पेशल कोऑर्डिनेटर को दिए गए निर्देश को दोहराता है कि "इस लक्ष्य की दिशा में बहुपक्षीय कोशिशों में दूसरी सरकारों के साथ समन्वय करें।"57 यह कानून इसलिए भी अहम है क्योंकि इसमें कहा गया है कि "अमेरिकी सरकार ने कभी यह पोज़िशन नहीं ली है कि तिब्बत प्राचीन काल से चीन का हिस्सा था," और PRC की तिब्बत की वैधानिक परिभाषा को चुनौती देते हुए उसे टेबटन ऑटोनोमस रीजन (TAR) तक सीमित रखता है। रिज़ॉल्व टिबट एक्ट में तिब्बत को TAR के साथ-साथ चीनी प्रांतों के कई और तिब्बती इलाकों (किंघई, गांसु, सिचुआन और युन्नान) के तौर पर परिभाषित किया गया है।58
2002 के बाद से तिब्बत पर ये तीन अमेरिकी कानून तिब्बत पर चीन के ऐतिहासिक दावों पर संदेह करते हैं, भविष्य के दलाई लामा के चुनाव और पदासीन होने पर PRC के अधिकार के दावे को चुनौती देते हैं, और चीनी दुष्प्रचार का मुकाबला करने और दलाई लामा के साथ बिना शर्त बातचीत के लिए चीन पर दबाव डालने के लिए विदेशी सरकारों के साथ समन्वय करने के लिए स्पेशल कोऑर्डिनेटर को निर्देश देकर तिब्बत मुद्दे का अंतर्राष्ट्रीयकरण करते हैं। चीन ने तीनों कानूनों को साफ़ तौर पर खारिज कर दिया है और स्पेशल कोऑर्डिनेटर को मान्यता देने से इनकार कर दिया है।59 चीन के विदेश मंत्रालय ने कहा कि TPSA 2020 अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को नियंत्रित करने वाले मानदंडों का गंभीर उल्लंघन है और यह चीन के घरेलू मामलों में दखल देने की एक कोशिश है।60 2024 के रिज़ॉल्व टिबट एक्ट के जवाब में, PRC ने कहा है कि चीन के आंतरिक मामले “किसी भी बाहरी ताक़त के दखल की अनुमति नहीं देते” और “किसी व्यक्ति और किसी भी ताक़त को चीन को रोकने और दबाने के लिए कभी भी शिज़ांग [तिब्बत] को अस्थिर करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।”61
हालांकि 2002 में TPA पारित होने के समय चीन-अमेरिका रिश्ते अभी के मुकाबले बेहतर स्थिति में थे, लेकिन चीन ने TPA को नज़रअंदाज़ नहीं किया। इसने तिब्बत को लेकर अमेरिका के इरादों के बारे में चिंताओं को फिर से जगा दिया। 2004 के बाद से PRC ने धार्मिक नीति पर घरेलू कानूनों को जिस तरह से लागू किया (इस पेपर के पहले भाग में ब्यौरा दिया गया है), उनमें विदेशी दखल का बार-बार जिक्र और इस पर लगाम के लिए PRC का मज़बूत इरादा साफ़ दिखता है।
2004 के चीनी कानून के आर्टिकल 4 में साफ़ तौर पर कहा गया है कि धार्मिक मामलों में विदेशी ताक़तों को हावी नहीं होना चाहिए।62 2007 के कानूनों के आर्टिकल 2 में तिब्बत के जीवित बुद्धों के चुनाव के सवाल पर खास तौर पर इस बात को दोहराया गया है। इसमें कहा गया है कि "पुनर्जन्म लेने वाले बुद्धों के काम में किसी विदेशी संगठन या व्यक्ति का दखल या उसका प्रभुत्व नहीं होना चाहिए।"63 2013 में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के पदभार संभालने के बाद से इस प्रक्रिया को विदेशी दखल से बचाने के PRC की कोशिशों में तेज़ी आई है।
अप्रैल 2016 में धार्मिक कार्य पर राष्ट्रीय सम्मेलन (2001 के बाद हुआ पहला सम्मेलन) में शी ने चीन में सभी धर्मों के "चीनीकरण" की बात कही। इस संदर्भ में, उन्होंने साफ़ तौर पर कहा कि "हमें धार्मिक माध्यमों से विदेशी घुसपैठ के खिलाफ मज़बूती से रखवाली करनी चाहिए।"64 धार्मिक मामलों के लिए राज्य प्रशासन के निदेशक वांग ज़ुओआन ने तब से इस मुद्दे पर बार-बार दावा किया है कि पश्चिमी देश PRC में घुसपैठ करने के लिए धर्म का इस्तेमाल कर रहे हैं, जिसका मकसद देश की राजनीतिक व्यवस्था को बदलना है।65 शी के नेतृत्व में नए नियमों का मकसद चीन के धार्मिक मामलों में विदेशी भागीदारी की किसी भी संभावना को खत्म करना है। 2018 से विदेशियों को धार्मिक संगठन बनाने, धार्मिक संस्थान या स्थल स्थापित करने, चीनी अनुयायियों की भर्ती करने और PRC के अंदर मिशनरी गतिविधियां चलाने से प्रतिबंधित कर दिया गया है।66 2021 से विदेशी संगठनों या व्यक्तियों पर चीन की पूर्व स्वीकृति के बगैर ऑनलाइन धार्मिक सेवाएं चलाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है।67 चीन के भीतर विदेशी गैर सरकारी संगठनों की गतिविधियों के प्रशासन पर कानून भी विदेशी गैर सरकारी संगठनों को चीन में किसी भी धार्मिक गतिविधि से जुड़ने या उसे स्पॉन्सर करने से रोकता है।
तिब्बत में इन नए नियमों को सख्ती से लागू किया गया है, जहां विदेशियों की भूमिका को सीमित करने के अलावा, सरकार ने दलाई लामा की तालीम में भाग लेने के लिए तिब्बतियों की विदेश यात्रा में भारी कटौती कर दी गई है और नेपाल सरकार पर दबाव डाला है कि वो तिब्बत से आने वाले भक्तों और शरणार्थियों के लिए अपनी सरहद बंद कर दें। सख्त कानूनों ने आत्मदाह और इस तरह के काम को बढ़ावा देने वालों को अपराध के दायरे में ला दिया है क्योंकि हाल के दिनों में इस तरह की घटनाओं ने नुकसानदायक अंतर्राष्ट्रीय ध्यान खींचा है। भिक्षुओं और भिक्षुणियों की निगरानी और “देशभक्तिपूर्ण पुनः शिक्षा” के लिए मठों में अफसरों को रखा गया है।68 इस बीच, PRC ने जीवित बुद्धों की पहचान और चुनाव प्रक्रिया पर अपनी पकड़ मज़बूत कर ली है। एक चीनी स्रोत के मुताबिक, 2022 के अंत तक, 93 नए अवतरित जीवित बुद्ध चीन में पाए गए हैं जिन्हें PRC की मंजूरी और मान्यता मिली हुई है।69 आखिरी लेकिन अहम बात, अंतर्राष्ट्रीय अपील और अमेरिकी कानून के बावजूद, राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दलाई लामा के साथ बातचीत फिर से शुरू नहीं की है।
इस तरह, इक्कीसवीं सदी की शुरुआत से दलाई लामा के पुनर्जन्म के सवाल पर PRC और अमेरिका दोनों के कदमों ने इसे उनके रिश्तों में दरार लाने वाली एक बड़ी वजह बना दिया है। तिब्बत में अमेरिकी मकसद पर चीन की चिंताएं और तिब्बती मुद्दे को अमेरिका और पश्चिमी देशों में जनता का समर्थन पुनर्जन्म के सवाल पर PRC की नीति तय करने वाली मज़बूत वजह हैं। पुनर्जन्म का मुद्दा सुरक्षा हितों से जुड़ गया है, और ये चीन-अमेरिका प्रतिस्पर्धा का हिस्सा बन रहा है। इस तरह ये साफ़ है कि तिब्बत पर अपने नियंत्रण के प्रभावी होने की बीजिंग की घबराहट और अमेरिकी मकसद पर उसकी चिंताएं तिब्बत और दलाई लामा पर एक सख्त नीति को आकार दे रही हैं। इसके भारत के लिए भी बड़े प्रभाव होंगे।
भाग III: दलाई लामा के प्रति भारतीय और चीनी दृष्टिकोण का संक्षिप्त विवरण
हालांकि भारत और तिब्बत के बीच कई शताब्दियों से आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संपर्क थे, लेकिन आधुनिक राजनीतिक संबंध भारत पर ब्रिटिश शासन के साथ शुरू हुए। तिब्बत में अंग्रेज़ों की दिलचस्पी इस चिंता से बढ़ी कि उन्नीसवीं सदी के अंत में, रूसी साम्राज्य दक्षिणी एशिया में विस्तार करना चाह रहा था। हिमालय पर्वतमाला के उत्तर में रूस के विस्तार को रोकने के लिए सीमा तय करना ज़रूरी था। चीन और तिब्बत के बीच के समीकरणों से मामला उलझ गया था - चीनी तिब्बत पर संप्रभुता का दावा करते थे, और तिब्बतियों का दावा था कि तिब्बत कभी भी चीन का हिस्सा नहीं रहा। अंग्रेज़ों ने तिब्बत पर चीनी “संप्रभुता” के बजाय “आधिपत्य” को स्वीकार करके तिब्बत की हैसियत के सवाल को दरकिनार कर दिया। साथ ही, 1914 में 13वें दलाई लामा की सरकार के साथ, सबसे ऊंचे हिमालय जलक्षेत्र के नज़दीक पारंपरिक रेखा के अनुसार भारत-तिब्बत सीमा को अंतिम रूप दिया।70
1947 में आज़ादी के बाद, भारत सरकार ने दलाई लामा की सरकार के साथ अपने रिश्ते बनाए रखे। 1949 में, प्रधानमंत्री के एक नोट में भारत की दुविधा यह थी कि "चीनी कम्युनिस्ट सरकार के लिए चुनौती माने जाने वाले किसी भी कदम को उठाए बिना" तिब्बती सरकार के साथ अपने दोस्ताना रिश्ते कैसे बनाए और जारी रखे जाएं।71 भारत की मुख्य दिलचस्पी ये पक्का करने में थी कि सरहद में कोई बदलाव ना आए, दलाई लामा की सरकार के बचे रहने में कम थी।72 1950 में चीन के कब्ज़े के बाद तिब्बत में यह मुख्य भारतीय उद्देश्य बना रहा। दलाई लामा की भूमिका भारत की नीति में बहुत बाद में आई, जब उन्होंने निर्वासन का रास्ता चुना।
इसके उलट, चीन का प्राथमिक उद्देश्य तिब्बत पर कब्ज़ा करना था। वे पश्चिमी देशों के दखल को लेकर फिक्रमंद थे। ब्रिटेन के साथ अपने नज़दीकी रिश्तों की वजह से भारत को शक की नज़र से देखा जाता था - क्योंकि चीनियों को ना सिर्फ ये लगता था कि भारत दखल दे सकता है, बल्कि उन्हें ये भी लगता था कि भारत पर पश्चिमी देश दबाव डाल सकते हैं कि वो अपने इलाके का इस्तेमाल तिब्बत पर पूर्ण नियंत्रण करने के PRC के मकसद को नाकाम करने के लिए करे। 1950 के दशक में जब तिब्बती मामलों में पश्चिमी दखल को लेकर उनकी चिंताएं बढ़ गईं, तो चीनी अधिकारियों और मीडिया ने भारत सरकार पर “तिब्बत में चीन के लिए नकारात्मक विदेशी ताक़तों के असर में आने” का आरोप लगाया, या ये कहा कि भारत 1959 में उपद्रव को भड़काने में पश्चिम को पर्दे के पीछे से समर्थन दे रहा है।73
इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि हालांकि PRC तिब्बत में किसी भी विदेशी ताक़त के दखल की अनुमति नहीं देता था, लेकिन जब भी PRC को अपनी प्राथमिकताओं को फायदा होता दिखता था, तो वो समय-समय पर भारत से दलाई लामा के मामले में दखल देने के लिए कहता था। मार्च 1951 में, पूर्व चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई ने सत्रह सूत्री समझौते पर बातचीत के दौरान दलाई लामा को तिब्बत छोड़ने से रोकने के लिए निजी तौर पर भारतीय मदद मांगी थी।74 1956 में, जब दलाई लामा तिब्बत नहीं लौटना चाहते थे (वे भगवान बुद्ध के जन्म की 2500वीं वर्षगांठ समारोह में भाग लेने के लिए भारत आए थे), प्रधानमंत्री चाऊ ने सीधे भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से उन्हें वापस लौटने के लिए मनाने की गुज़ारिश की, और कहा कि, “जब तक दलाई लामा [तिब्बत से] दूर हैं, तब तक कुछ न कुछ हो सकता है . . . इसे मुख्य रूप से अमेरिका और ताइवान उकसा रहे हैं।”75
तिब्बत और दलाई लामा पर भारत-चीन बातचीत के शुरुआती इतिहास के इस वर्णन से मोटे तौर पर तीन निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं।
पहला, शुरू से ही तिब्बत में भारत और चीन के मकसद अलग-अलग थे। दलाई लामा की सरकार और तिब्बती समाज पर पूरा कब्ज़ा, जो चीन की प्राथमिकताएं थीं, भारत की मुख्य चिंता नहीं थी। भारत के लिए, दलाई लामा के साथ उसके रिश्ते इसलिए अहम थे ताकि अपनी सीमा पर अंतिम फ़ैसला और इसकी पवित्रता सुनिश्चित हो सके।
दूसरा, PRC दलाई लामा पर भारतीय प्रभाव को स्वीकार करता था। इसलिए, उन्होंने ज़रूरत पड़ने पर भारत की मदद या भागीदारी मांगी। ऐसे वक्त में, PRC उम्मीद करता था कि भारत बिना शर्त मदद करेगा, लेकिन वो भारत को अपने हित के मामलों में दलाई लामा के साथ किसी भी तरह के संबंध रखने की अनुमति नहीं देगा। दूसरे शब्दों में, चीन ने “अंदरूनी मामलों में दखल नहीं” के सिद्धांत का इस्तेमाल खास मौकों पर किया।
तीसरा, चूंकि PRC मुख्य रूप से तिब्बत में अपने मकसद को नाकाम करने की अमेरिकी कोशिशों के बारे में चिंतित था, इसलिए उनकी नीति भारत को तटस्थ बनाने की थी ताकि तिब्बत में चीन को मात देने के लिए पश्चिम को भारतीय इलाके ना मिल सकें। उन्होंने सीमा मुद्दे पर तब तक नरम रुख बनाए रखा जब तक कि उन्होंने 1954 में अतिरिक्त-क्षेत्रीय विशेषाधिकारों को खत्म करके भारत के असर को हाशिए पर नहीं डाल दिया। 1950 के दशक के आखिरी सालों में, जब CIA ने तिब्बत में अभियान शुरू किया, तो PRC ने भारत पर ऐसी कोशिशों से अलग होने का दबाव डाला, लेकिन सीधे तौर पर भारत पर दखल देने का आरोप नहीं लगाया (जब तक कि दलाई लामा भारत नहीं आ गए), हालांकि चीनी लीडरशिप को तिब्बत में भारत के उद्देश्यों के बारे में सरकार पर भरोसा नहीं था।
दलाई लामा से जुड़े मामलों में भारत के साथ बर्ताव करते वक्त PRC कुछ तरीकों से इस पैटर्न पर चलता रहा है। पहला, यह तिब्बत पर चीनी संप्रभुता के बारे में भारत से फिर पुष्टि मिलने पर फोकस करता है, जिससे किसी तरह के शक की गुंजाइश कम हो जाती है।76 दूसरा, यह भारत में दलाई लामा की उपस्थिति को स्वीकार करता है और नियमित रूप से भारत से यह भरोसा दिलाए जाने के बदले में तथाकथित निर्वासित तिब्बती सरकार (केंद्रीय तिब्बती प्रशासन या CTA) को बर्दाश्त करता है कि भारत CTA को मान्यता नहीं देता है या दलाई लामा को भारतीय ज़मीन से चीन विरोधी राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने की अनुमति नहीं देता है।77 तीसरा, यह चाहता है कि तिब्बत में PRC की संप्रभुता खत्म करने के मकसद से अमेरिका को भारतीय ज़मीन का इस्तेमाल करने ना मिले। चीन इस बात को लेकर भी सतर्क है कि वो तिब्बती “आज़ादी” को बढ़ावा देने के लिए पश्चिमी “साजिश” का हिस्सा होने का आरोप लगाकर भारत को ना “उकसाए”। उदाहरण के लिए, मई 2021 में चीन की स्टेट काउंसिल की तरफ से तिब्बत पर जारी व्हाइट पेपर में 1950 के दशक में खाम्पा विद्रोह का समर्थन करने की कोशिशों में अमेरिका के साथ भारत की भागीदारी का आरोप नहीं लगाया गया है, न ही तिब्बत में 1959 के विद्रोह में भारत की कथित भागीदारी के बारे में कुछ कहा गया है।78 PRC के आधिकारिक बयानों में सावधानी बरती गई है, उनमें बस इतनी उम्मीद जताई जाती है कि भारत दलाई लामा को राजनीतिक गतिविधि में शामिल नहीं होने देगा या चीन के विरोधियों को अपने इलाके का इस्तेमाल नहीं करने देगा। जब भारतीय नेता दलाई लामा से मिलते हैं तो PRC के अधिकारी ज़्यादातर चुप रहते हैं या औपचारिक विरोध करते हैं।
PRC नहीं चाहता है कि भारत में रह रहे तिब्बती निर्वासित समुदाय की गतिविधियों के लिए भारत का सक्रिय समर्थन मिले या “चीन विरोधी पश्चिमी ताक़तों” के लिए भारतीय ज़मीन से PRC की क्षेत्रीय अखंडता को नुकसान पहुंचाए जाने की गुंजाइश बने। चीनी लीडरशिप ने इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए भारत के लिए अपनी नीति तैयार की है।
अपनी ओर से, भारत दलाई लामा के साथ अपने व्यवहार में सार्वजनिक रूप से सतर्क है, लेकिन इसने PRC को तिब्बती जीवन शैली को संरक्षित करने के लिए अपना समर्थन देने या दलाई लामा की आध्यात्मिक और धार्मिक गतिविधियों पर रोक लगाने की अनुमति नहीं दी है। भारत की नीति यह है कि दलाई लामा एक श्रद्धेय धार्मिक नेता हैं और उन्हें भारत में अपनी धार्मिक गतिविधियां करने की आज़ादी दी गई है।79 समय-समय पर, भारत का नेतृत्व दलाई लामा से एक आध्यात्मिक नेता के रूप में मिलता है और खास अवसरों पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान करता है। यह विदेशी शिष्यों को उनकी शिक्षाओं में भाग लेने और उनका आशीर्वाद लेने की अनुमति देता है। यह विदेशी सरकार या संसदीय प्रतिनिधियों के दौरे को नहीं रोकता है, लेकिन यह उनके साथ ना तो सहयोग करता है और ना उनका समर्थन करता है।
भारत ने दलाई लामा के पुनर्जन्म के सवाल पर अब तक कोई सार्वजनिक रुख नहीं लिया है। हालांकि, इसने संकेत दिए हैं कि यह PRC के समर्थन से नियुक्त जीवित बुद्धों (जैसा कि उग्येन थिनले दोरजे, तथाकथित 17वें करमापा लामा का मामला है) को बिना शर्त स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं है। यह वैकल्पिक जीवित बुद्ध उम्मीदवारों को भारत में रहने और अपना दावा पेश करने की अनुमति देता है। भारत तिब्बती शरणार्थियों को आने की अनुमति देता है, तिब्बती शैक्षणिक और सांस्कृतिक संस्थानों का समर्थन करता है, और निर्वासित समुदाय को अपनी पसंद के अनुसार तिब्बती बौद्ध धर्म अपनाने की अनुमति देता है। साठ से ज़्यादा साल से तिब्बती समुदाय को भारत में बिना किसी रुकावट के रहने, अभ्यास करने और अपनी संस्कृति और सभ्यता को बढ़ावा देने की अनुमति है।
भारत औपचारिक रूप से CTA या निर्वासित तिब्बती संसद को मान्यता नहीं देता है, लेकिन यह उनकी वैध गतिविधि में दखल नहीं देता है। इसने आत्मनिर्णय की उनकी मांगों पर कोई रुख नहीं लिया है। न ही भारत ने मामले को सुलझाने के लिए किसी भी पक्ष से बातचीत करने की अपील की है। कुल मिलाकर, भारत ने दलाई लामा को शरण देने और निर्वासित तिब्बती समुदाय को सहारा देने के मुश्किल हालात का निपटारा उचित ढंग से किया है। भारत की नीति को PRC ने बर्दाश्त किया है क्योंकि यह उनके अपने मकसद से मेल खाती है।
जैसे-जैसे 14वें दलाई लामा की उम्र बढ़ती जा रही है, उनके जाने के बाद क्या होगा, यह सवाल और भी गंभीर होता जा रहा है। हालांकि चीन ने उन्हें "विभाजनकारी" करार दिया है, लेकिन दोनों ही पक्ष उन्हें वैध दलाई लामा के तौर पर मान्यता देते हैं, और इस तरह, भारत और चीन इस बुनियादी मुद्दे पर राज़ी हैं। अगर 15वें दलाई लामा के एक से अधिक अवतार सामने आते हैं और अगले अवतार पर भारत और चीन राज़ी नहीं होते हैं, तो क्या PRC भारत की ज़मीन पर मौजूद चीनी उम्मीदवार के विकल्प को भारत की तरफ से उकसाने वाली कार्रवाई के तौर पर देखेगा, यह सवाल भारत के प्रति उसकी नीति पर असर डाल सकता है। यह इस बात पर निर्भर करेगा कि 15वें दलाई लामा पद का उम्मीदवार तिब्बत पर चीन के नियंत्रण के लिए किस तरह का खतरा पैदा करता है और साथ ही चीन-अमेरिका रिश्तों की हालत कैसी है। हालांकि भारत का नज़रिया और बर्ताव तिब्बत और दलाई लामा पर चीनी नीति पर प्रमुख रूप से असर नहीं डालता है, लेकिन अगले दलाई लामा के चुनाव पर भारत का रुख भी पुनर्जन्म के सवाल से निपटने में चीन के लिए एक मुद्दा होगा। 14वें दलाई लामा के बाद के हालातों में CTA और तिब्बती संसद समेत निर्वासित तिब्बती समुदाय की गतिविधियों का असर भी भारत के लिए नीति पर दिखने की संभावना है। अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया भी दोनों देशों की नीतियों पर असर डाल सकती है। इसलिए, उन विकल्पों की तलाश करना प्रासंगिक है जिन पर भारत को सोचने की ज़रूरत हो सकती है।
भाग IV: मौजूद विकल्प
भारत में दलाई लामा के मुद्दे में लोगों की दिलचस्पी है। जून 2024 में, मुख्यधारा के अख़बारटाइम्स ऑफ़ इंडियाने एक लेख छापा जिसमें भारत से दलाई लामा के बाद के परिदृश्य के लिए तैयार रहने को कहा गया था। इस लेख में तिब्बती बौद्ध धर्म के सबसे ऊंचे स्तर पर बदलाव के इस संवेदनशील समय में चीन के खिलाफ़ एक मज़बूत तिब्बत नीति की वकालत की गई थी।80 इस तरह की सोच उन विशेषज्ञों के लेख में भी दिखाई देती है, जो सोचते हैं कि 14वें दलाई लामा के गुज़र जाने के बाद उत्तराधिकार प्रक्रिया को नियंत्रित करने के लिए PRC की व्यवस्था और तिब्बत में लोगों के बीच इसकी स्वीकार्यता संदेह के घेरे में है।81 ऐसे सुझाव दिए गए हैं कि भारत को उत्तराधिकार के सवाल पर साफ़ रुख अपनाना चाहिए। तिब्बती निर्वासित समुदाय की भी यही मांग है। पूर्वी लद्दाख में चीन की सैनिक गतिविधियों की वजह से 2020 के बाद भारत और चीन के बीच रिश्तों में ठहराव ने भारत की तिब्बत नीति पर आम सोच-विचार पर असर डाला है। रिज़ॉल्व टिबट एक्ट 2024 के पास होने के साथ-साथ, आम तौर पर, चीन के मानवाधिकार रिकॉर्ड की बढ़ती आलोचना उत्तराधिकार के सवाल पर अंतर्राष्ट्रीय चिंताओं को बढ़ा रही है।
दलाई लामा के उत्तराधिकार के मामले में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और PRC की घरेलू स्थिरता और राष्ट्रीय सुरक्षा संवेदनशीलता को देखते हुए, भारत को दलाई लामा को लेकर PRC के प्रति सद्भाव भरा कोई भी एकतरफा कदम उठाने से बचना चाहिए। यह मानना कि चीन इसे सकारात्मक रूप से देख सकता है, इसकी संभावना नहीं है। PRC भारत के इरादों पर भरोसा नहीं करता है, लेकिन अपनी स्थिरता और सुरक्षा लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए उसकी मौजूदा नीति को बर्दाश्त करता है। तिब्बत के मुद्दे पर भारत के साथ उसका नज़रिया एकतरफा है - भारत को चीनी चिंताओं के प्रति संवेदनशील होना चाहिए, लेकिन चीन को तिब्बत से जुड़ी भारत की चिंताओं के प्रति बराबरी से संवेदनशीलता दिखाने की ज़रूरत नहीं है। इसलिए, चीन को खुश करने के लिए कोई भी एकतरफा कदम नहीं उठाया जाना चाहिए क्योंकि इससे भारत को कोई फायदा नहीं होगा।
न ही भारत को पुनर्जन्म के मुद्दे पर पूरी तरह से उदासीन रुख अपनाना चाहिए, जो भारत के लिए महत्वपूर्ण है। तिब्बती बौद्ध धर्म के अनुयायियों में बड़ी तादाद में भारतीय हैं, और अगले दलाई लामा के चुनाव पर विवाद का घरेलू स्तर पर असर हो सकता है। 1959 से ही तिब्बती लोगों की एक बड़ी आबादी भारत में रह रही है, जो PRC के तिब्बती मुद्दों को ठीक से न संभाले जाने का नतीजा है, और तिब्बत के सबसे बड़े आध्यात्मिक नेता के उचित ढंग से बदले जाने में भारत का हित है।
कुछ ऐसे विषय हैं जिन पर भारत सरकार 14वें दलाई लामा के जीवनकाल के दौरान नीतिगत विकल्प तैयार करने के दौरान विचार कर सकती है।
पहला, क्या भारत को दलाई लामा के पुनर्जन्म के मुद्दे पर और, उससे भी ज़्यादा आम तौर पर, तिब्बती बौद्ध समुदाय के अपने आध्यात्मिक नेताओं को चुनने के हक, जिसमें सरकारी दखल ना हो, पर विचार रखना चाहिए? अब तक, भारत ने इस विषय से परहेज़ किया है। हालांकि, अगर 14वें दलाई लामा फ़ैसला करते हैं कि वो पुनर्जन्म लेंगे, तो यह प्रक्रिया भारत में शुरू हो सकती है।82 PRC का इसका विरोध तय करना तय है, और संभावना है कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय इसका स्वागत करे। परंपरा और व्यवहार दोनों में, भारतीय सरकार भारत में किसी भी धर्म के नेता के चुनाव में दखल नहीं देती है। तिब्बती बौद्ध धर्म भी एक ऐसा धर्म है जिसके अनुयायी उत्तरी भारत के कुछ राज्यों में हैं। उचित समय पर भारत सरकार की तरफ से तिब्बती बौद्ध समुदाय को स्वतंत्र रूप से और बिना किसी दखल के अपने धार्मिक नेताओं को चुनने की अनुमति देने के बारे में बयान संविधान और व्यवहार दोनों के अनुसार समुचित है। उदाहरण के लिए, पुनर्जन्म प्रक्रियाओं पर 24 सितंबर, 2011 को 14वें दलाई लामा के बयान का समर्थन करके, तिब्बती समुदाय की तरफ मांगी गई चुनाव प्रक्रियाओं के विवरण में जाना न तो ज़रूरी है और न ही उचित।83
दूसरा, क्या भारत को PRC और दलाई लामा के बीच बातचीत की मांग को अपना सार्वजनिक समर्थन देना चाहिए? भारत सरकार ने PRC के साथ बातचीत के लिए दलाई लामा के आह्वान का सार्वजनिक रूप से समर्थन नहीं किया है। हालांकि, PRC समय-समय पर सार्वजनिक रूप से भारत से जम्मू-कश्मीर मुद्दे को सुलझाने के लिए बातचीत करने को कहता रहता है, तब भी, जबकि भारत का यह साफ़ रुख है कि यह एक आंतरिक मामला है जिस पर चीन को दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। चीन और दलाई लामा के बीच बातचीत के लिए अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की तरफ से बढ़ती मांग को देखते हुए, भारत को इन मांगों के लिए अपना समर्थन जताने पर सोचना चाहिए। यह दलील दी जा सकती है कि छह दशकों से ज़्यादा वक्त से भारत में तिब्बती निर्वासित समुदाय की एक बड़ी तादाद (तिब्बत में मौजूदा चीनी नीति की वजह से) भारत को तिब्बत के भविष्य के लिए बोलने का अधिकार देती है। यह ज़रूरी नहीं है कि इसे दूसरों के साथ मिलकर किया जाए। हालांकि इस बात की संभावना बेहद कम है कि PRC भारत की बातचीत की अपील पर ध्यान देगा, लेकिन इस तरह का साफ़ बयान एक-दूसरे के लिए उन तीन मौजूदा नीतियों के मुताबिक होगा जो भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर ने 2022 में पेश की थीं- एक-दूसरे के लिए सम्मान, एक-दूसरे के लिए संवेदनशीलता और एक-दूसरे के हित।84
तीसरा, क्या भारत को निर्वासित तिब्बती समुदाय की आत्मनिर्णय के अधिकार की मांग का समर्थन करना चाहिए? भारत ने अतीत में इन मांगों का समर्थन नहीं किया है। चीन जम्मू-कश्मीर में भारत की चिंताओं के प्रति वैसी संवेदनशीलता नहीं दिखाता है। वह नियमित तौर पर भारत से कश्मीर के लोगों की इच्छा के मुताबिक मामला सुलझाने की अपील करता है। भारत भविष्य में अवसर आने पर ऐसी ही या मिलती-जुलती भाषा का इस्तेमाल करने पर विचार कर सकता है। यह आत्मनिर्णय की मांग का समर्थन करने से अलग है और इससे यह बात भी साफ़ जताई जा सकती है कि चीन अपनी विदेश नीति में जिन सिद्धांतों का समर्थन करने का दावा करता है, उन्हें उसकी घरेलू नीति में भी लागू किया जाना चाहिए।
चौथा, क्या भारत को 14वें दलाई लामा के पार्थिव शरीर के अंतिम विश्राम स्थल के लिए भारत में किसी स्थल या तीर्थस्थल पर सहमत होना चाहिए? अगर 14वें दलाई लामा का निधन भारत की ज़मीन पर होता है, तो इसके अलावा कोई और रास्ता शायद ना हो। अगर ऐसा होता है, तो 14वें दलाई लामा ल्हासा में पोटाला पैलेस के बाहर दफ़नाए जाने वाले 1706 के बाद से पहले दलाई लामा होंगे।85 अगर दलाई लामा का निधन भारत में होता है, तो हो सकता है कि सरकार के पास उनके पार्थिव शरीर को भारत में दफ़नाने के अलावा कोई विकल्प नहीं हो। इस अनुमान पर काम करते हुए, भारत सरकार उनके पार्थिव शरीर के लिए संभावित विश्राम स्थलों की पहचान पहले से ही कर सकती है, यह ध्यान में रखते हुए कि 14वें दलाई लामा के पार्थिव शरीर का विश्राम स्थल अपने आप ही लाखों तीर्थयात्रियों के लिए एक पवित्र तीर्थस्थल बन जाएगा। इसलिए, संभावित स्थानों, तीर्थयात्रियों के लिए वहां तक पहुंचने का रास्ता और सामाजिक और सुरक्षा संबंधी मुद्दों पर सावधानी से सोचने की ज़रूरत है। चूंकि PRC अभी भी दावा करता है कि दलाई लामा PRC के नागरिक हैं, भले ही वे विद्रोही हों, इसलिए यह भी संभावना है कि वो ल्हासा में दफ़नाने के लिए उनके पार्थिव शरीर की मांग कर सकता है। भारत सरकार को PRC की ऐसी मांगों से निपटने के लिए एक माकूल पॉलिसी रेस्पॉन्स तैयार करने की ज़रूरत होगी, जिसमें कानूनी साधनों का सहारा भी लेना पड़ सकता है।
पांचवां, भारत सरकार 14वें दलाई लामा के निधन और 15वें दलाई लामा की पहचान के बीच की अवधि को किस तरह से संभालेगी? यह अवधि कई महीनों तक चल सकती है। भारत सरकार को इस दौरान CTA और भारत में स्थित तिब्बती संसद के साथ अपने जुड़ाव की शर्तों के मुताबिक माकूल पॉलिसी रेस्पॉन्स तैयार करने की ज़रूरत है क्योंकि तिब्बती समुदाय को देश से बाहर निकालने का विकल्प भारत के पास नहीं है। ऐसे संपर्क महत्वपूर्ण हैं क्योंकि निर्वासित समुदाय की उपस्थिति और गतिविधियों का घरेलू, सामाजिक और कानून-व्यवस्था पर प्रभाव पड़ता है। चूंकि इस उद्देश्य के लिए तौर-तरीके पहले से ही मौजूद हैं, इसलिए CTA को औपचारिक रूप से मान्यता देने या कोऑर्डिनेटर के ज़रिए बातचीत को औपचारिक रूप देने की कोई ज़रूरत नहीं है, जैसा कि एक अध्ययन में सुझाव दिया गया है।86 भारत को भविष्य में तिब्बती समुदाय की सांस्कृतिक, शैक्षिक और आध्यात्मिक गतिविधियों का समर्थन करना जारी रखना चाहिए।
इससे जुड़ा सवाल यह है कि भारत तिब्बती निर्वासित समुदाय के उन तत्वों से कैसे निपटता है जो 14वें दलाई लामा (जिन्होंने तिब्बत-चीन मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान की अपील की है) के मार्गदर्शन के बिना “प्रतिरोध” की रणनीति और कार्यनीति बदलना चाहते हैं। ये हालात तब आ सकते हैं, जैसा एक अध्ययन में बताया गया है, PRC शुग्देन संप्रदाय (जिसके साथ 14वें दलाई लामा के गंभीर मतभेद हैं) से एक जीवित बुद्ध अवतार को 15वें दलाई लामा के रूप में चुनता है।87 ऐसी हालत में, तिब्बती निर्वासित समुदाय के भीतर हिंसा की घटनाएं हो सकती है, जो भारत के लिए कानून और व्यवस्था की समस्याएं खड़ी कर सकती हैं। संवैधानिक और कानूनी दोनों ही नज़रिए से, जब तक निर्वासित समुदाय भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा (घरेलू कानून और व्यवस्था समेत) को नुकसान पहुंचाने वाला काम नहीं करता है, तब तक समुदाय और उसके संस्थानों को भारत की ज़मीन से कामकाज जारी रखने देने में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। तिब्बती समुदाय के भीतर किसी भी तरह का हिंसक बर्ताव या भारत की ज़मीन से PRC के खिलाफ हिंसा की धमकी बर्दाश्त नहीं की जा सकती। इसी तर्ज पर, भारत को तिब्बती समुदाय के मामलों में PRC या युनाइटेड फ्रंट वर्क डिपार्टमेंट जैसे उसके एजेंटों की तरफ से होने वाले किसी भी तरह के दखल को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए। चीनी एजेंसियों के किसी भी तरह से दखल देने की कोशिशों से घरेलू कानूनों के तहत सख्ती से निपटा जाना चाहिए, और ऐसे मकसद के लिए लागू होने वाले वाजिब कानूनी शर्तों की पहचान पहले से की जानी चाहिए।
छठा, यह आइडिया कि भारत को 14वें दलाई लामा के बाद की परिस्थिति पर समान सोच वाले देशों के साथ तालमेल करना चाहिए, इस पर फायदे-नुकसान का सावधानी के साथ विश्लेषण की ज़रूरत है।88 अमेरिकी कांग्रेस ने पहले ही प्रशासन को PRC के नैरेटिव और दावों का मुकाबला करने के लिए बहुपक्षीय रणनीति अपनाने का निर्देश दे रखा है। पुनर्जन्म के सवाल पर वैश्विक गठबंधन बनाने के लिए संयुक्त पहल के सुझावों का भारतीय दृष्टिकोण से सावधानीपूर्वक अध्ययन करने की ज़रूरत हो सकती है, देश के लिए उसके नतीजों को ध्यान में रखते हुए। अंतर्राष्ट्रीय राय का असर बेशक घरेलू राय पर आएगा और इसका सम्मान किया जाना चाहिए, लेकिन यह भी अहम है कि तीसरे पक्ष को हालात के अनिश्चित होने का गैर-ज़रूरी फायदा उठाने नहीं दिया जाए ताकि वे ऐसी गतिविधियों में शामिल ना हो सकें जो भारत और PRC के बीच तनाव को बढ़ा सकती हैं।
सातवां, 14वें दलाई लामा पहले ही कह चुके हैं कि अगर उनका पुनर्जन्म होगा, तो वह एक "स्वतंत्र" देश में होगा। 2011 में, दलाई लामा ने साफ़ तौर पर कहा था कि "PRC में शामिल लोगों समेत किसी भी व्यक्ति द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों के लिए चुने गए उम्मीदवार को कोई मान्यता या स्वीकृति नहीं दी जानी चाहिए।" इससे कुछ सवाल उठते हैं जिनके लिए उचित नीति की पहचान करने की ज़रूरत होगी।
- अगर 15वें दलाई लामा पद का उम्मीदवार किसी तीसरे देश में पाया जाता है, तो भारत चीन की इस साफ़ मांग पर कैसे जवाब देगा कि वो आधिकारिक या अनौपचारिक रूप से उन्हें वैध दलाई लामा के तौर पर मान्यता नहीं देता है
- अगर भारत सरकार विदेश में पाए जाने वाले उम्मीदवार पर कोई साफ़ रुख नहीं अपनाती है, तो क्या वो उसे देश में आने की अनुमति देगी? भारत चीन की आपत्तियों से कैसे निपटेगा?
- अगर 15वें दलाई लामा पद का उम्मीदवार भारतीय इलाके में मिलता है, तो क्या भारत इस तथ्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करेगा? अगर नहीं, तो जीवित बुद्ध उम्मीदवार की हैसियत क्या होगी?
- चूंकि निर्वासित समुदाय के कई लोग भारतीय नागरिकता रखते हैं, ऐसे में अगर चुना गया दलाई लामा उम्मीदवार भारतीय नागरिक होता है, तो देश इस स्थिति से कैसे निपटेगा?
- ऊपर जिक्र किए गए दूसरे या तीसरे परिदृश्य में, क्या भारत 15वें दलाई लामा को 14वें दलाई लामा के निवास तक बेरोकटोक पहुंच और दलाई लामा के अनुष्ठानिक वस्तुओं और प्रतीकों पर अधिकार के साथ-साथ राज्याभिषेक समारोह की अनुमति देगा?
- भारत PRC की इस मांग से कैसे निपटेगा कि दलाई लामाओं की अनुष्ठानिक वस्तुएं और प्रतीक चीन के हैं और उन्हें लौटाना होगा? राजनीतिक असर के साथ-साथ, इसके कानूनी असर भी हो सकते हैं।
- जीवित बुद्ध बालक, जिसे 15वें दलाई लामा के रूप में पहचाना जाएगा, बालिग होने तक एक रीजेंसी काउंसिल के गाइडेंस में रहेगा। अगर ऐसा होता है तो इस रीजेंसी काउंसिल के साथ भारत का क्या संबंध होगा, और किन दिशा-निर्देशों के तहत उन्हें भारत में काम करने की अनुमति दी जा सकती है?
चूंकि इन सवालों के असर विदेश नीति और घरेलू नीतियों दोनों पर होंगे, इसलिए मान्यता के सवाल को स्थान या निवास के सवालों से अलग करने के सिद्धांत पर निपटाया जाना चाहिए। संवैधानिक रूप से, धार्मिक संगठनों को सरकार के दखल के बिना अपने नेतृत्व, निवास और प्रथाओं को तय करने का अधिकार है। PRC वैकल्पिक उम्मीदवार को अस्वीकार करने के लिए भारत पर दबाव डालने की कोशिश करेगा, लेकिन भारत सरकार को इस आधार पर ऐसे उम्मीदवार के पक्ष में या उसके खिलाफ कोई राय व्यक्त करने की ज़रूरत नहीं है कि संबंधित समुदायों को धार्मिक नेताओं का चुनाव संविधान और देश के कानूनों के दायरे में करने की मंजूरी है। उम्मीदवार को भारत में रहने की अनुमति देना भी भारत की लोकनीति और पिछली प्रैक्टिस के मुताबिक है। तिब्बती समुदाय की मांग है कि उनके 15वें दलाई लामा उम्मीदवार को वर्तमान दलाई लामा के अनुष्ठान से जुड़ी वस्तुओं और कार्यालय के प्रतीकों के इस्तेमाल की अनुमति दी जाए, यह एक ज़्यादा संवेदनशील मुद्दा है। PRC अनुष्ठान से जुड़ी वस्तुओं और प्रतीकों पर हक जताएगा, यह आरोप लगाते हुए कि उन्हें तस्करी करके गैर-कानूनी रूप से भारत पहुंचाया गया था और उन्हें लौटाया जाना चाहिए।
निष्कर्ष
दलाई लामा और पुनर्जन्म के मुद्दे पर चीनी नीति के तय होने में भारत की मुख्य भूमिका नहीं है। चीनी नीति तिब्बत पर स्थिरता और राजनीतिक नियंत्रण बनाए रखने तथा बदलाव के दौरान तिब्बत को अस्थिर करने और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीन को बदनाम करने के लिए अमेरिका क्या कर सकता है, इस बारे में चिंताओं से मुख्य रूप से प्रेरित है। भारत में तिब्बती बौद्ध धर्म को मानने वाले लोगों की तादाद और निर्वासित समुदाय की मौजूदगी के कारण पुनर्जन्म के सवाल में भारत की भागीदारी है। भारत सिर्फ चुप रहने वाला दर्शक नहीं है।
तिब्बत छोड़ने के छह दशक बाद भी, दलाई लामा तिब्बतियों के दिल और दिमाग पर बड़ा प्रभाव रखते हैं; इससे बीजिंग को फिक्र होती है, साथ ही वॉशिंगटन की तरफ से तिब्बती मुद्दे और दलाई लामा के लिए बढ़ते समर्थन से भी फिक्र होती है। इसलिए, पिछले पंद्रह साल में 14वें दलाई लामा और पुनर्जन्म के सवाल पर PRC का रवैया सख्त हो गया है। इस सख्ती से भारत की नीति के लिए नई चुनौतियां पैदा होने की संभावना है, खासकर 15वें दलाई लामा के पुनर्जन्म और मान्यता के प्रमुख सवालों पर, साथ ही 14वें दलाई लामा के निधन और उनके उत्तराधिकारी के चुनाव के बीच की अवधि पर।
पिछले पैंसठ साल से भारत और चीन के बीच एक असहज अस्थायी समझौता कायम है, क्योंकि दोनों एक ही शख्स को 14वें दलाई लामा के रूप में स्वीकार करते हैं। उनके निधन के बाद ये स्थिति बदल सकती है, क्योंकि PRC के बाहर पाए जाने वाले दलाई लामा के अवतार को चीन स्वीकार नहीं करेगा। चूंकि दलाई लामा का प्राथमिक निवास, अस्थायी धार्मिक गद्दी और प्रतीक भारत में स्थित हैं, इसलिए पुनर्जन्म के सवाल पर उसका दृष्टिकोण और चीन के बाहर पाए जाने वाले उम्मीदवार के साथ भारत की नीति में PRC की दिलचस्पी होगी। भारतीय नीति की परीक्षा इस कसौटी पर की जा सकती है कि यह तिब्बत में स्थिरता बनाए रखने और तिब्बत को अस्थिर करने की अमेरिकी कोशिशों को रोकने के PRC के दोहरे उद्देश्यों में किस तरह मदद करती है या रुकावट डालती है। इस भावी उलझन को देखते हुए भारत को इस विषय पर नीति तैयार करने की ज़रूरत है, जिसमें न केवल PRC और भारत और विदेशों में तिब्बती समुदाय के साथ उसके संबंधों को ध्यान में रखा जाए, बल्कि चीन-अमेरिका और भारत-अमेरिका संबंधों को भी ध्यान में रखा जाए।
निष्कर्ष यही है कि, दलाई लामा पद के उम्मीदवार को धर्मशाला में अपना कार्यभार संभालने देने के लिए अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू जन दबाव के सामने उदासीनता ज़्यादा वक्त तक टिक नहीं सकेगी। इस उम्मीद में कि 14वें दलाई लामा का देहांत भारत और चीन के आपसी संबंधों को नए सिरे से बनाने का मौका होगा, PRC को खुश करने के लिए किसी एकतरफा कदम उठाने का कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि इस बात की संभावना कम है कि PRC इसे सद्भाव भरे कदम की तरह देखेगा। इस पेपर के अंतिम भाग में उठाए गए सवालों पर विचार करने से मकसद साफ़ दिख सकते हैं, मुश्किलों से निपटने में मदद मिल सकती है और भारत के लिए अपने बुनियादी मकसदों को हासिल करने के मौके बन सकते हैं।
डिसक्लेमर: इस पेपर में जताए गए विचार लेखक के निजी विचारों को दर्शाते हैं और किसी भी तरह से किसी दूसरे संस्थान, अधिकारी या किसी अन्य के विचारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते हैं। यह प्रकाशन पाठक के लिए सूचना के स्रोत की तरह है और विषय वस्तु के संदर्भ में आधिकारिक या व्यापक होने का दावा नहीं करता है।
नोट्स
नोट्स
1“Central Tibetan Administration – Restoring Freedom for Tibetans,” Central Tibetan Administration, December 22, 2019, https://tibet.net, accessed on June 2, 2024
2Rohit Mullick, “Would Prefer to Die in Free Democracy like India: Dalai Lama,” Times of India, September 23, 2022,
https://timesofindia.indiatimes.com/city/shimla/would-prefer-to-die-in-free-democracy-like-india-dalai/articleshow/94386853.cms.
3“Tibet Since 1951: Liberation, Development and Prosperity,” The State Council Information Office of the People’s Republic of China, May 2021,
https://english.www.gov.cn/atts/stream/files/60a7228bc6d0cc300eea77c2.
44. PRC के मुताबिक दलाई लामा के अवतार के चुनाव के लिए हर उम्मीदवार के नाम और जन्मतिथि को धातु या हाथी दांत की पट्टियों पर लिखकर एक सुनहरे कलश में रखना होगा, ताकि लॉटरी के ज़रिए चुनाव किया जा सके, जिसकी देखरेख पारंपरिक रूप से चीनी सम्राट के प्रतिनिधि करते हैं, जैसा कि 1793 के राजसी अध्यादेश में आदेश दिया गया था; The Dalai Lama’s Statement on Reincarnation from Dharamsala, September 24, 2011,
https://www.dalailama.com/news/2011/statement-of-his-holiness-the-fourteenth-dalai-lama-tenzin-gyatso-on-the-issue-of-his-reincarnation.
5O. P. Tandon and Rebon Catharina Banarjee Dhar, Resetting India’s Tibet Policy 2022: Repositioning the Future (Foundation for Non-Violent Alternatives, 2022), 76.
6Ibid., 77.
7माओत्से तुंग ने जुलाई 1936 में एडगर स्नो से कहा कि "जब चीन में जनवादी क्रांति की जीत होगी तो बाहरी मंगोलियन गणराज्य अपनी इच्छा से ही चीनी संघ का हिस्सा बन जाएगा। इसी तरह, मुस्लिम और तिब्बती लोग भी चीनी संघ से जुड़े स्वायत्त गणराज्य बन जाएंगे;" Edgar Snow, “Interviews with Mao Tse-tung, July – September 1936,” China: The March Towards Unity (Workers Library Publishers, 1937), 33–50.
8“Although they [ethnic minorities] constitute only six percent of the population, they inhabit extensive regions which comprise 50 to 60 percent of China’s total area,” in “On the Correct Handling of Contradictions Among the People,” Selected Works of Mao Tse-tung, February 27, 1957, https://www.marxists.org/reference/archive/mao/selected-works/volume-5/mswv5_58.htm; “On the Ten Major Relationships,” Selected Works of Mao Tse-tung, April 25, 1956, https://www.marxists.org/reference/archive/mao/selected-works/volume-5/mswv5_51.htm.
9“On Coalition Government,” Selected Works of Mao Tse-tung, April 24, 1945,
https://www.marxists.org/reference/archive/mao/selected-works/volume-5/mswv5_51.htm.
10“From the Diary of N. V. Roshchin, Memorandum of Conversation with Premier Zhou Enlai on 15 November 1949,” History & Public Policy Program Digital Archive, December 1, 1949, https://digitalarchive.wilsoncenter.org/document/117887.
11Pan Jiaguo, Contemporary China History Studies, Vol. I (2008), 97–105.
12“Agreement on Measures for the Peaceful Liberation of Tibet (17-point Agreement of May 1951),” claudearpi.net, accessed October 2, 2024, https://www.archieve.claudearpi.net/maintenance/uploaded_pics/1951AgreementonMeasuresforthePeacefulLiberationofTibet.pdf.
13“On the Policies for Our Work in Tibet – Directive of the Central Committee on the Communist Party of China,” Selected Works of Mao Tse-tung, April 6, 1952,
https://www.marxists.org/reference/archive/mao/selected-works/volume-5/mswv5_51.htm.
14Lodi Gyaltsen Gyari, The Dalai Lama’s Special Envoy: Memoirs of a Lifetime in Pursuit of a Reunited Tibet (HarperCollins, 2023), 75.
15“He appears to me as a father and he himself considered me as a son. [We had] very good relations,” said the Dalai Lama in a 2012 BBC interview on The Andrew Marr Show; “Mao was like a Father to Me, says the Dalai Lama,” The Hindu, June 29, 2012.
16The People’s Republic of China: Document 19: The Basic Viewpoint on the Religious Question During our Country’s Socialist Period [SELECTIONS], Central Committee of the Chinese Communist Party, March 31, 1982. Translation from Donald E. MacInnis, Religion in China Today: Policy and Practice (Orbis Books, 1989), 8-26, https://original.religlaw.org/content/religlaw/documents/doc19relig1982.htm.
17Ibid.
18“The Basic Viewpoint on the Religious Question during Our Country’s Socialist Period,” translation reprinted in
www.original.religlaw.org
with permission from Religion in China Today: Policy & Practice, 8-26 by Donald E McInnis, (Christopher Brooks, copyright 1989).19Constitution of the People’s Republic of China, article 36, chapter II (amended March 14, 2004).
20Lodi Gyaltsen Gyari, The Dalai Lama’s Special Envoy, 238–243.
211989 में तियानमेन चौक पर विरोध प्रदर्शन के दौरान और उसके बाद तिब्बत में मार्शल लॉ लगा दिया गया था। बहाना यह था कि धर्म के मुखौटे के पीछे बौद्ध संन्यासी क्रांतिकारी गतिविधि में लगे हुए थे।
22“Government Policy Toward Religion in the People’s Republic of China—A Brief History,” Pew Research Center, August 30, 2023, https://www.pewresearch.org/religious-landscape-study/2023/08/30/government-policy-toward-religion-in-the-peoples-republic-of-china-a-brief-history/.
23Pitman B. Potter, “Belief in Control: Regulation of Religion in China,” The China Quarterly, no 174, (June 2003): 317–37, http://www.jstor.org/stable/20058996.
24Lodi Gyaltsen Gyari, The Dalai Lama’s Special Envoy, 354-356.
25“Government Policy Towards Religion in People’s Republic of China—A Brief History,” in Measuring Religion in China, (Pew Research Center, August 30, 2023).
26Regulations on Religious Affairs, Decree of the State Council of the People’s Republic of China No. 426, (Effective March 1, 2005), http://www.cppcc.gov.cn/ccrp/2012/05/09/ARTI1336554114696658.shtml.
27Ibid.
28Management Measures for the Reincarnation of Living Buddhas in Tibetan Buddhism, State Religious Affairs Bureau Order, Order No. Five, (Issued on July 18, 2007) https://www.cecc.gov/resources/legal-provisions/measures-on-the-management-of-the-reincarnation-of-living-buddhas-in-0.
29Ibid.
30Lodi Gyaltsen Gyari, The Dalai Lama’s Special Envoy, 577-578.
31पंचेन लामा को आम तौर पर तिब्बती बौद्ध धर्म के गेलुग्पा संप्रदाय का दूसरा सबसे बड़ा लामा माना जाता है। दलाई लामा इसी संप्रदाय से संबंध रखते हैं। 1989 में 10वें पंचेन लामा के निधन के बाद, चीन ने अपने उम्मीदवार, ग्यानकैन नोरबू को 11वें पंचेन लामा के तौर पर नियुक्त किया, हालांकि दलाई लामा ने पहले ही एक अन्य उम्मीदवार, गेधुन चोएक्यी न्यिमा को चुन लिया था। माना जाता है कि दलाई लामा के उम्मीदवार चीन में हिरासत में हैं और उनके ठिकाने की जानकारी किसी को नहीं है; 1995 में दलाई लामा से मान्यता प्राप्त अवतार को बीजिंग ने मान्यता नहीं दी गई थी और उसके एक अन्य उम्मीदवार-ग्यानकेन नोरबू- को गद्दी दी गई थी।
32“Communique on the Current State of the Ideological Sphere,” translated by China File, April 2013, https://www.chinafile.com/document-9-chinafile-translation.
33Xinhua, “Xi Calls for Improved Religious Work,” China,org.cn, April 24, 2016, http://www.china.org.cn/china/2016-04/24/content_38312410.htm#,
34Xi Jinping: The Governance of China Vol. II (Foreign Language Press, 2017), 329.
35Naoko Eto, “Why Does the Xi Jinping Administration Advocate the “Sinicization” of Religion?” SPF China Observer, no 8, (August 11, 2018), https://www.spf.org/spf-china-observer/en/document-detail008.html.
36“The State of Religion in China,” Council of Foreign Relations, last updated May 15, 2024, accessed May 24, 2024.
37China 2022 International Religious Freedom Report, Office of International Religious Freedom, U.S. Department of State, https://www.state.gov/wp-content/uploads/2023/05/441219-CHINA-2022-INTERNATIONAL-RELIGIOUS-FREEDOM-REPORT.pdf.
38O.P. Tandon and Rebon Catharina Banarjee Dhar, Resetting India’s Tibet Policy 2022, 45–46.
39O.P. Tandon and Rebon Catharina Banarjee Dhar, Resetting India’s Tibet Policy 2022, 48.
40Robert Barnett, “The Post Dalai Era: The Party Prepares for the Tibetan Leader’s Death,” in “The Dalai Lama Succession: Strategic Realities of the Tibet Question,” ed. Jagannath Panda and Eerishka Pankaj (Institute for Security & Development Policy, Organization for Research on China and Asia (ORCA), 2023), https://isdp.eu/wp-content/uploads/2023/05/ISDP-Special-Paper-Tibet-May-15.pdf.
41China’s Policies and Practices on Protecting Freedom of Religious Belief, white paper, (The State Council Information Office of the People’s Republic of China, April 2018), http://english.scio.gov.cn/node_8004074.html.
42Sarah Cook, “The Battle for China’s Spirit: Religious Revival, Repression, and Resistance under Xi Jinping,” Freedom House, 2017, accessed August 5, 2024, https://freedomhouse.org/report/special-report/2017/battle-chinas-spirit.
43H. E. Richardson, “History Down to the Close of the XIXth Century,” in Tibetan Precis, (1912), www.claudearpi.net/wp-content/uploads/2016/11/1945-Tibetan-Precis-by-Richardson.pdf.
44Tibet since 1951: Liberation, Development and Prosperity, (The State Council Information Office of the People’s Republic of China, May 2021), https://english.www.gov.cn/atts/stream/files/60a7228bc6d0cc300eea77c2.
45Melvyn C. Goldstein, “The United States, Tibet, and the Cold War,” Journal of Cold War Studies 8, no. 3 (2004): 145–64, https://www.jstor.org/stable/26925945.
4646. दिसंबर 1949 में, अमेरिकी विदेश मंत्री ने नई दिल्ली में अमेरिकी राजदूत को सलाह दी कि वे तिब्बतियों को “अनौपचारिक रूप से और निजी तौर पर बताएं कि तिब्बत अब चीनी नियंत्रण से दरअसल आज़ाद दिखाई देता है और इस वक्त चीन से पूरी तरह अलग होने का कोई भी सीधा कदम संभवतः चीनी कम्युनिस्ट कोशिशों को तेज़ करेगा, जिससे मौजूदा हैसियत खतरे में पड़ जाएगी।” Doc. 1056, Telegram from the Secretary of State to Ambassador in India (Henderson), in Foreign Relations of the United States, 1949, The Far East: China, Volume IX (United States Government Printing Office, December 21, 1949),
https://history.state.gov/historicaldocuments/frus1949v09/d1056.
47Message from State Department to Dalai Lama, 7 September 1951, 793B.00/9–1851, RG 59, NARA: quoted in Goldstein, History of Modern Tibet, 808–810, cited in Melvyn C. Goldstein, “The United States, Tibet, and the Cold War.”
48“Doc. 399, Telegram from Department of State to Embassy in India, November 25, 1959,” in Foreign Relations of the United States, 1958–1960, China, Volume XIX (United States Government Printing Office, Washington, 1996); https://history.state.gov/historicaldocuments/frus1958-60v19/d399. “Doc. 401” and “Editorial Note,” ibid.
4949. उनकी पहली यात्रा 1979 में ही होगी जब चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच राजनयिक संबंध स्थापित हो जाएंगे। “Memorandum from Presidential Assistant for National Security Affairs (Kissinger) to President Nixon, January 26, 1970,” in Foreign Relations of the United States, 1969–1976, Volume XVII (United States Government Printing Office, Washington, 2006),
https://history.state.gov/historicaldocuments/frus1969-76v17/d64.
50President George H.W. Bush had met with him “privately” in April 1991. Lodi Gyaltsen Gyari, The Dalai Lama’s Special Envoy, 352.
51“President Clinton and President Jiang Zemin Joint Press Conference, 1997,” USC US-China Institute, USC Annenberg, October 29, 1997, https://china.usc.edu/president-clinton-and-president-jiang-zemin-joint-press-conference-1997.
52Weekly Compilation of Presidential Documents, Monday July 6, 1998, Volume 34–Number 7, 1243-1309, https://www.govinfo.gov/app/collection/cpd/1998/07.
53Informal contact was re-established at Hongkong in December 1997. Lodi Gyaltsen Gyari, The Dalai Lama’s Special Envoy, 353.
54Susan V. Lawrence, “The Tibetan Policy Act of 2002: Background and Implementation,” Congressional Research Service, Updated July 9, 2015, https://crsreports.congress.gov/product/pdf/R/R43781.
55Lodi Gyaltsen Gyari, The Dalai Lama’s Special Envoy, 327.
56H.R.4331 - Tibetan Policy and Support Act of 2019, Passed House on January 28, 2020, https://www.congress.gov/bill/116th-congress/house-bill/4331; Such Chinese officials will be subject to sanctions under the Global Magnitsky Act, including the denial of entry into the United States.
57H.R.4331 - Tibetan Policy and Support Act of 2019
58S.138 - Promoting a Resolution to the Tibet-China Dispute Act, Public Law No. 118-70, July 12, 2024, https://www.congress.gov/bill/118th-congress/senate-bill/138.
59Ministry of Foreign Affairs of the People’s Republic of China, “Foreign Ministry Spokesperson Qin Gang’s Regular Press Conference on March 7, 2014,” March 8, 2013, http://www.fmprc.gov.cn/mfa_eng/xwfw_665399/ cited in Susan V. Lawrence,” The Tibetan Policy Act of 2002: Background and Implementation.”
60“Foreign Ministry spokesperson Hua Chunying’s remarks on the US House of Representatives Passing the Tibetan Policy and Support Act 2019,” Ministry of Foreign Affairs of the PRC, January 29, 2020, https://www.mfa.gov.cn/eng/xw/fyrbt/fyrbt/202405/t20240530_11349636.html.
61“Foreign Ministry Spokesperson’s Remarks on the US Signing into Law the “Promoting a Resolution to the Tibet-China Dispute Act,” Ministry of Foreign Affairs, July 13, 2024.
https://www.mfa.gov.cn/eng/xw/fyrbt/fyrbt/202407/t20240730_11463279.html
62The Regulations on Religious Affairs, Decree of the State Council of the People’s Republic of China, No. 426, (Effective March 1, 2005), http://www.cppcc.gov.cn/ccrp/2012/05/09/ARTI1336554114696658.shtml.
63Measures on the Management of the Reincarnation of Living Buddhas of Tibetan Buddhism, State Religious Affairs Bureau Order No. 5 (Issued July 18, 2007), https://www.cecc.gov/resources/legal-provisions/measures-on-the-management-of-the-reincarnation-of-living-buddhas-in-0.
64Xinhua, “Xi Calls for Improved Religious Work,” China.org.cn, April 24, 2016, http://www.china.org.cn/china/2016-04/24/content_38312410.htm
65Naoko Eto, “Why does Xi Jinping Administration Advocate the ‘Sinicization’ of Religion?”
66China’s Policies and Practices on Protecting Freedom of Religious Belief.
67Measures for the Administration of Internet Religious Information Services, Order No. 17 of the National Religious Affairs Administration, the Cyberspace Administration of China, the Ministry of Industry and Information Technology, the Ministry of Public Security, and the Ministry of State Security, (Effective January 3, 2022), http://www.lawinfochina.com/display.aspx?id=39108&lib=law.
68Sarah Cook, “The Battle for China’s Spirit: Religious Revival, Repression and Resistance under Xi Jinping
69“CPC Policies on the Governance of Xizang in the New Era: Approach and Achievements” white paper, (The State Council Information Office of the People’s Republic of China, November 2023, http://english.scio.gov.cn/node_9004977.html.
70H. E. Richardson, “History Down to the Close of the XIXth Century,” Section
71“Note by Prime Minister on the Policy Towards Tibet, July 9, 1949,” in India-China Relations 1947-2000 A Documentary Study Vol II, ed. A. S. Bhasin (Geetika Publishers, 2018) 121–122. http://www.geetikapublishers.com/PDF/India-China-Relations-Contents.pdf.
7272. अगस्त 1950 में चीन को दिए गए एक ज्ञापन में भारत की यह इच्छा जताई गई थी कि वो यह सुनिश्चित करे कि “भारत और तिब्बत के बीच मान्यता प्राप्त सीमा अक्षुण्ण बनी रहे।” An aide-memoire given to the PRC in August 1950 conveyed India’s keenness to ensure that “the recognized boundary between India and Tibet should remain inviolable.” “Doc. 0206, Telegram from Foreign New Delhi to Indembassy Peking, August 24, 1950,” in India-China Relations 1947-2000 A Documentary Study Vol II, ed A.S. Bhasin, 329.
73“Doc. 0230, Notes exchanged between Delhi and Peking in 1950,” in ibid., 374–375; Ranjit Singh Kalha, India-China Boundary Issues: Quest for Settlement (ICWA/Pentagon Press, 2014) 97, http://www.pentagonpress.in/book_details.aspx?this=385.
74“Doc. 0300, Telegram from Indembassy Peking to Foreign New Delhi, March 22, 1951,” in India-China Relations 1947-2000 A Documentary Study Vol II, ed A.S. Bhasin, 507.
75“Doc. 0981, Talks between Prime Minister Jawaharlal Nehru and Chinese Premier Zhou Enlai,” in ibid., 1780–1781.
76“The Indian side reiterated the long standing and consistent policy of the Government of India that Tibet is an autonomous region of China and that anti-China political activities by Tibetan elements are not permitted on Indian soil.’ “India-China Joint Press Communique,” Indian Journal of Asian Affairs 2, no. 1 (1989): 53-55, http://www.jstor.org/stable/41950350.
77“The Indian side recognizes that the Tibet Autonomous Region is part of the territory of the People’s Republic of China and reiterates that it does not allow Tibetans to engage in anti-China political activities in India.” Declaration on Principles for Relations and Comprehensive Cooperation between the Republic of India and the People’s Republic of China, June 24, 2003, https://archive.pib.gov.in/archive/releases98/lyr2003/rjun2003/24062003/r2406200318.html.
78“Tibet Since 1951: Liberation, Development and Prosperity,” State Council Information Office of the People’s Republic of China, May 2021.
79“Official Spokesperson’s response to a query regarding a recent media report on the Government’s position on His Holiness the Dalai Lama,” Ministry of External Affairs, Government of India, March 2, 2018, https://www.mea.gov.in/media-briefings.htm?dtl/29532/Official_Spokespersons_response_to_a_query_regarding_a_recent_media_report_on_the_Governments_position_on_His_Holiness_the_Dalai_Lama.
80“India-China relations are at a major low. China has repeatedly intruded into and occupied Indian territory. Both armies are eyeball-to-eyeball in the higher Himalayas. India has stopped referring to the ‘One China’ policy for years. And since China does not see India as an equal and treats the border dispute as a convenient political tool, New Delhi should have no hesitation in backing the Tibetan cause. India needs leverage. And the Tibet issue is a big one.” ”The Tibet Play,” Times of India, June 21, 2024,
https://timesofindia.indiatimes.com/blogs/toi-editorials/the-tibet-play-2/
81Jagannath Panda and Eerishika Pankaj, “The Dalai Lama’s Succession: Strategic Realities of the Tibet Question,” Institute for Security & Development Policy, Organisation for Research on China and Asia (ORCA), May 2023, https://www.isdp.eu/publication/the-dalai-lamas-succession-strategic-realities-of-the-tibet-question/.
8214वें दलाई लामा ने अवतार की तलाश का काम भारत के धर्मशाला स्थित गादेन फोडरंग ट्रस्ट को सौंपा है। “Resolutions of the Third Special General Meeting on Reincarnation,” Central Tibetan Administration, October 9, 2019,
https://tibet.net/resolutions-of-the-third-special-general-meeting-on-reincarnation/.
83O.P. Tandon and Rebon Catharina Banarjee Dhar, Resetting India’s Tibet Policy 2022, 81.
84“Remarks by External Affairs Minister Dr. S. Jaishankar at the launch of Asia Society Policy Institute,” August 29, 2022, Ministry of External Affairs, Government of India, https://www.mea.gov.in/Speeches-Statements.htm?dtl/35662/.
855वें से लेकर 13वें दलाई लामाओं तक को (छठे दलाई लामा को छोड़कर, जिनके अवशेष उनके देहांत के बाद कभी नहीं मिले) पोटाला कॉम्प्लेक्स में पोत्रांग मार्पो या लाल महल में दफ़नाया गया है, और तिब्बतियों और अन्य बौद्ध एक समान रूप से उनका सम्मान करते हैं।
86O.P. Tandon and Rebon Catharina Banarjee Dhar, Resetting India’s Tibet Policy 2022, 86.
87O.P. Tandon and Rebon Catharina Banarjee Dhar, Resetting India’s Tibet Policy 2022, 76.
88Jagannath Panda and Eerishika Pankaj, “‘The Dalai Lama’s Succession: Strategic Realities of the Tibet Question.”